कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
मोती ने उत्तर दिया- तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।
'अबकी बार बड़ी मार पड़ेगी।'
'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया हैं तो मार से कहाँ तक बचेंगे?'
'गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा हैं। दोनों के हाथ में लाठियाँ हैं।'
मोती बोला- कहो तो दिखा दूँ कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा हैं।
हीरा ने समझाया- नहीं भाई ! खड़े हो जाओ।
'मुझे मारेगा तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।'
'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं हैं'
मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़कर ले गया। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देख कर गया और उसके सहायक समझ गये कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।
आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिये निकली और दोनों के मुँह में देकर चली गयी। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शान्त होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का वास है। लड़की भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गयी थी।
दोनों दिन-भर जोते जाते, डंडे खाते, अड़ते। शाम को थान में बाँध दिये जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते, मगर दोनों की आँखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।
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