कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
वही हुआ। मजूर को बड़ी ताकीद कर दी गयी कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाय।
बैलों ने नाँद में मुँह डाला, तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्या खायँ? आशा भरी आँखों से द्वार की ओर ताकने लगे।
झूरी ने मजूर से कहा- थोड़ी सी खली क्यों नहीं ड़ाल देता बे?
'मालकिन मुझे मार डालेगी।'
'चुराकर डाल आ।'
'ना दादा, पीछे से तुम ही उन्हीं की-सी कहोगे।'
दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी बार उसने दोनों को गाड़ी में जोता।
दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा ; पर हीरा ने सँभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।
संध्या-समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया. फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।
दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा।
दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डंडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा, हल रस्सी, जूआ सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होती, तो दोनो पकड़ाई में न आते।
हीरा ने मूक-भाषा में कहा- भागना व्यर्थ हैं।
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