कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
दूसरे ने जवाब दिया, 'अच्छा हुआ, निकाल दिया गया। सबेरे-सबेरे भंगी का मुँह देखना पड़ता था।
मंगल और अँधेरे में खिसक गया। आशा गहरे जल में डूब गयी। महेशनाथ थाली से उठ गये। नौकर हाथ धुला रहा है। अब हुक्का पीयेंगे और सोयेंगे। सुरेश अपनी माँ के पास बैठा कोई कहा,नी सुनता-सुनता
सो जायगा ! गरीब मंगल की किसे चिन्ता है? इतनी देर हो गयी, किसी ने भूल से भी न पुकारा।
कुछ देर तक वह निराश-सा वहाँ खड़ा रहा, फिर एक लम्बी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल में थाली का जूठन ले जाता नजर आया। मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया। अब मन को कैसे रोके? कहार ने कहा, 'अरे, तू यहाँ था? हमने समझा कि कहीं चला गया। ले, खा ले; मैं फेंकने ले जा रहा था।'
मंगल ने दीनता से कहा, 'मैं तो बड़ी देर से यहाँ खड़ा था।'
'तो बोला, क्यों नहीं?'
'मारे डर के।'
'अच्छा, ले खा ले।'
उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया। मंगल ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा, जिसमें दीन कृतज्ञता भरी हुई थी। टामी भी अन्दर से निकल आया था। दोनों वहीं नीम के नीचे पत्तल में खाने लगे। मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा, 'देखा, पेट की आग ऐसी होती है ! यह लात की मारी हुई रोटियाँ भी न मिलतीं,तो क्या करते?' टामी ने दुम हिला दी।
'सुरेश को अम्माँ ने पाला था।'
टामी ने फिर दुम हिलायी।
'लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।'
टामी ने फिर दुम हिलायी।
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