कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
दिल्ली
15-12-25
प्यारी बहन,
तुझसे बार-बार क्षमा माँगती हूँ पैरों पड़ती हूँ। मेरे पत्र न लिखने का कारण आलस्य न था, सैर-सपाटे की धुन न थी। रोज सोचती थी कि आज लिखूँगी, पर कोई-न-कोई ऐसा काम आ पड़ता था, कोई ऐसी बात हो जाती थी, कोई ऐसी बाधा आ खड़ी होती थी कि चित्त अशांत हो जाता था और मुंह लपेटकर पड़ रहती थी। तुम मुझे अब देखो तो शायद पहचान न सको। मसूरी से दिल्ली आए एक महीना हो गया। यहाँ विनोद को तीन-सौ रुपए की एक जगह मिल गई है। यह सारा महीना बाजार की खाक छानने में कटा। विनोद ने मुझे पूरी स्वाधीनता दे रखी है। मैं जो चाहूँ करूँ, उनसे कोई मतलब नहीं। वह मेरे मेहमान हैं। गृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर डालकर वह निश्चित हो गए हैं। ऐसा बेफ़िक्र मैंने आदमी ही नहीं देखा। हाजिरी की परवाह है न डिनर की, बुलाया तो आ गए, नहीं तो बैठे हैं। नौकरों से कुछ बोलने की तो मानो इन्होंने कसम ही खाली है। उन्हें डाटूँ तो मैं, रखूँ तो मैं, निकालूँ तो मैं, उनसे कोई मतलब ही नहीं। मैं चाहती हूँ वह मेरे प्रबंध की आलोचना करें, ऐब निकालें; मैं चाहती हूँ जब मैं बाज़ार से कोई चीज़ लाऊँ, तो वह बतावें कि मैं जट गई या जीत आई; मैं चाहती हूँ महीने के खर्च का बजट बनाते समय मेरे और उनके बीच में खूब बहस हो; पर इन अरमानों में से एक भी पूरा नहीं होता। मैं नहीं समझती इस तरह कोई स्त्री कहीं तक गृह-प्रबंध में सफल हो सकती है। विनोद के इस संपूर्ण आत्मसमर्पण ने मेरे निज की जरूरतों के लिए कोई गुँजाइश ही नहीं रक्खी। अपने शौक की चीज़ खुद खरीद कर लाते बुरा मालूम होता है, कम-से-कम मुझसे नहीं हो सकता। मैं जानती हूँ मैं अपने लिए कोई चीज़ लाऊँ, तो वह नाराज न होंगे, नहीं मुझे विश्वास है खुश होंगे, लेकिन मेरा जी चाहता है, मेरे शौक-सिंगार की चीज़ें वह खुद लाकर दें, उनसे लेने में जो आनंद है, वह खुद जाकर लाने में नहीं। पिताजी अब भी मुझे 100 रुपए महीना देते हैं और उन रुपयों को मैं अपनी जरूरतों पर खर्च कर सकती हूँ पर-न-जाने क्यों मुझे भय होता है कि कहीं विनोद समझें, मैं उनके रुपए खर्च किए डालती हूँ। जो आदमी किसी बात पर नाराज़ नहीं हो सकता, वह किसी बात पर खुश भी नहीं हो सकता। मेरी समझ ही में नहीं आता, वह किस बात से खुश और किस बात से नाराज होते हैं। बस, मेरी दशा उस आदमी की-सी है, जो बिना रास्ता जाने इधर-उधर भटकता फिरे। तुम्हें याद होगा हम दोनों कोई गणित का प्रश्न लगाने के वाद कितनी उत्सुकता से उसका जवाब देखती थीं। जब हमारा जवाब किताब के जवाब से मिल जाता था, तो हमें कितना हार्दिक आनंद मिलता था। मेहनत सफल हुई, इसका विश्वास हो जाता था। जिन गणित की पुस्तकों में प्रश्नों के उत्तर न लिखे होते थे, उसके प्रश्न हल करने की हमारी इच्छा ही न होती थी। सोचते थे, मेहनत अकारथ जाएगी। मैं रोज प्रश्न हल करती हूँ पर नहीं जानती जवाब ठीक निकला, या ग़लत। सोचो मेरे चित्त की क्या दशा होगी।
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