कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
एक हफ्ता होता है लखनऊ की मिस रिंग से भेंट हो गई। यह लेडी डाँक्टर हैं और मेरे घर बहुत आती-जाती हैं, किसी का सिर भी धमका और मिस रिंग बुलाई गई। पापा जब मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे, तो उन्होंने इन मिस रिंग को पढ़ाया था। उसका एहसान वह अब तक मानती हैं। यहाँ उन्हें देखकर भोजन का निमंत्रण न देना अशिष्टता की हद होती। मिस रिंग ने दावत मंजूर कर लीं। उस दिन मुझे जितनी कठिनाई हुई है, वह बयान नहीं कर सकती। मैंने कभी अँगरेजों के साथ टेबुल पर नहीं खाया। उनमें भोजन के क्या शिष्टाचार हैं, इसका मुझे बिलकुल ज्ञान नहीं। मैंने समझा था, विनोद मुझे सारी बातें बता देंगे। वह बरसों अँगरेजों के साथ इंगलैंड रह चुके हैं। मैंने उन्हें मिस रिंग के आने की सूचना भी दे दी, पर उस भले आदमी ने मानो सुना ही नहीं। मैंने भी निश्चय किया, मैं तुमसे कुछ न पूछूँगी, यही न होगा, मिस रिंग हँसेंगी। बला से। अपने ऊपर बार-बार झुँझलाती थी कि कहाँ मिस रिंग को बुला बैठी। पड़ोस के बँगलों में कई हमीं जैसे परिवार रहते हैं। उनसे सलाह ले सकती थी, पर यही संकोच होता था कि ये लोग मुझे गँवारिन समझेंगे। अपनी इस विवशता पर थोड़ी देर तक आँसू भी बहाती रही। आखिर निराश होकर अपनी बुद्धि से काम लिया। दूसरे दिन मिस रिंग आई। हम दोनों भी मेज पर बैठे। दावत शुरू हुई। मैं देखती थी कि विनोद बार-बार झेंपते थे और मिस रिंग बार-बार नाक सिकोड़ती थी, जिससे प्रकट हो रहा था कि शिष्टाचार की मर्यादा भंग हो रही है। मैं शर्म के मारे मरी जाती थी। बारे किसी भाँति विपत्ति सिर से टली। तब मैंने कान पकड़े कि अब किसी अँगरेज़ की दावत न करूँगी। उस दिन से देख रही हूँ विनोद मुझसे कुछ खिंचे हुए हैं। मैं भी नहीं बोल रही हूँ। वह शायद समझते हैं कि मैंने उनकी भद्द करा दी। मैं समझ रही हूँ कि उन्होंने मुझे लज्जित किया। सच कहती हूँ चंदा गृहस्थी के इन झंझटों मैं मुझे अब किसी से हँसने-बोलने का अवसर नहीं मिलता। इधर महीनों से कोई नई पुस्तक नहीं पढ़ सकी। विनोद की विनोदशीलता भी न जाने कहाँ चली गई। अब वह सिनेमा का, थिएटर का नाम भी नहीं लेते। हाँ, मैं चलूं तो वह तैयार हो जाएँगे। मैं चाहती हूँ प्रस्ताव उनकी ओर से हो, मैं केवल उसका अनुमोदन करूँ। शायद अब वह पहले की आदतें छोड़ रहे हैं। मैं तपस्या का संकल्प उनके मुख पर अंकित पाती हूँ। ऐसा जान पड़ता है, अपने में गृह-संचालन की शक्ति न पाकर उन्होंने सारा भार मुझ पर डाल दिया है। मसूरी में वह घर के संचालक थे। दो-ढाई महीने में 15 सौ रुपए खर्च किए। कहाँ से लाए, यह मैं अब तक नहीं जानती। पास तो शायद ही कुछ रहा हो। संभव है, किसी मित्र से ले लिया हो। 300 रुपए महीने की आमदनी में थिएटर और सिनेमा का जिक्र ही क्या। 33 रुपए तो मकान ही के निकल जाते हैं। मैं इस जंजाल से तंग आ गई हूँ। जी चाहता है, विनोद से कह दूँ मेरे चलाए यह ठेला न चलेगा। आप तो दो-ढाई घंटा युनिवर्सिटी में काम करके दिन-भर चैन करें, खूब टेनिस खेलें, खूब उपन्यास पढ़ें, खूब सोएँ और मैं सुबह से आधी रात तक घर के झँझटों मैं मरा करूँ। कई बार छेड़ने का इरादा किया, दिल मैं ठानकर उनके पास गई भी, लेकिन उनका सामीप्य मेरे सारे संयम, सारी ग्लानि, सारी विरक्ति को हर लेता है। उनका विकसित मुख-मंडल, उनके अनुरक्त-नेत्र, उनके कोमल शब्द मुझ पर मोहिनी मंत्र-सा डाल देते हैं। उनके एक आलिंगन में मेरी सारी वेदना विलीन हो जाती है। बहुत अच्छा होता, अगर यह इतने रूपवान्, इतने मधुरभाषी, इतने सौम्य न होते तो कदाचित् मैं इनसे झाड़ बैठती, अपनी कठिनाइयाँ कह सकती। इस दशा में तो इन्होंने मुझे जैसे भेड़ बना लिया है। मगर इस माया को तोड़ने का मौक़ा तलाश कर रही हूँ। एक तरह से मैं अपना आत्मसम्मान खो बैठी हूँ। मैं क्यों हर एक बात में किसी की अप्रसन्नता से डरती रहती हूँ मुझमें क्यों यह भाव नहीं आता कि जो कुछ मैं कर रही हूँ वह ठीक है। मैं इतनी मुखापेक्षा क्यों करती हूँ? इस मनोवृत्ति पर मुझे विजय पाना है, चाहे जो कुछ हो। अब इस वक्त विदा होती हूँ, अपने यहाँ के समाचार खिलना, जी लगा है।
पद्मा
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