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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


प्यारी पद्मा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे कुछ दुःख हुआ, कुछ हँसी आई, कुछ क्रोध आया। तुम क्या चाहती हो यह तुम्हें खुद नहीं मालूम। तुमने आदर्श पति पाया है, व्यर्थ की शंकाओं से मन को अशांत न करो। तुम स्वाधीनता चाहती थीं, वह तुम्हें मिल गई। दो आदमियों के लिए 300 रुपए कम नहीं होते। उस पर अभी तुम्हारे पापा भी 100 रुपए दिए जाते हैं। अब और क्या चाहिए। मुझे भय होता है कि तुम्हारा चित्त कुछ अव्यवस्थित हो गया है। मेरे पास तुम्हारे लिए सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं।

मैं 15 तारीख को काशी आ गई। स्वामी स्वयं मुझे बिदा कराने गए थे। घर से चलते समय बहुत रोई। पहले मैं समझती थी कि लड़कियाँ झूठ-मूठ रोया करती हैं। फिर मेरे लिए तो माता-पिता का वियोग कोई नई बात न थी। गर्मी दशहरा और बड़े दिन की छुट्टियों के बाद 6 सालों से इस वियोग का अनुभव कर रही हूँ। कभी आँखों में आँसू न आते थे। सहेलियों से मिलने की खुशी होती थी, पर अबकी तो ऐसा जान पड़ता था कोई हृदय को खींचे लेता है। अम्माजी के गले लिपटकर तो मैं इतना रोई कि मुझे मूर्च्छा आ गई। पिताजी के पैरों पर लोटकर रोने की अभिलाषा मन में ही रह गई। हाय वह रुदन का आनंद! उस समय पिता के चरणों पर गिरकर रोने के लिए मैं अपने प्राण तक दे देती। यही रोना आता था कि मैंने इनके लिए कुछ न किया। मेरा पालन-पोषण करने में इन्होंने क्या कुछ कष्ट न उठाया। मैं जन्म की रोगिणी हूँ। रोज ही बीमार रहती थी। अम्माजी रात-रात भर मुझे गोद में लिए बैठी रह जाती थीं। पिताजी के कंधों पर चढ़कर उचकने की याद मुझे अभी तक आती है। उन्होंने कभी मुझे कड़ी निगाह से नहीं देखा, मेरे सिर में दर्द हुआ और उनके हाथों के तोते उड़ जाते थे। 10 वर्ष की उम्र तक तो यों गए। 6 साल देहरादून में गुज़रे। अब जब इस योग्य हुई कि उनकी कुछ सेवा करूँ, तो यों पर झाड़कर अलग हो गई। कुल 8 महीने तक उनके चरणों की सेवा कर सकी और यही 8 महीने मेरे जीवन की निधि हैं। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरा जन्म फिर इसी गोद में हो और फिर इसी अतुल पितृस्नेह का आनंद भोगूँ।

संध्या समय गाड़ी स्टेशन से चली। मैं जनाने कमरे में थी और लोग दूसरे कमरे में थे। उस वक्त सहसा मुझे स्वामी को देखने की प्रबल इच्छा हुई। सांत्वना, सहानुभूति और आश्रय के लिए हृदय व्याकुल हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई क़ैदी काले पानी जा रहा हो।

घंटे-भर के वाद गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी। मैं पीछे की ओर खिड़की से सिर निकालकर देखने लगी। उसी वक्त द्वार खुला और किसी ने कमरे में क़दम रखा। उस कमरे में एक औरत भी न थी। मैंने चौंककर पीछे देखा तो एक पुरुष। मैंने तुरंत मुँह छिपा लिया और बोली- ''आप कौन हैं? यह जनाना कमरा है। मरदाने कमरे में जाइए।''

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