कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
|
8 पाठकों को प्रिय 133 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''आप तो मज़ाक़ करते हैं। सच बतलाइए''
''सच बता रहा हूँ। तुम्हारा आशिक हूँ।''
''अगर आप मेरे आशिक हैं तो कम-से-कम इतनी बात मानिए कि अगले स्टेशन पर उतर जाइए। मुझे बदनाम करके आप कुछ न पावेंगे। मुझ पर इतनी दया कीजिए।''
मैंने हाथ जोडकर यह बात कही। मेरा गला भी भर आया था। उस आदमी ने द्वार की ओर जाकर कहा- ''अगर आपका यही हुक्म है तो लीजिए जाता हूँ। याद रखिएगा।''
उसने द्वार खोल लिया और एक पाँव आगे बढ़ाया। मुझे मालूम हुआ वह नीचे कूदने जा रहा है। बहन, नहीं कह सकती उस वक्त मेरे दिल की क्या दशा हुई। मैंने बिजली की तरह लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और अपनी तरफ़ जोर से खींच लिया। उसने ग्लानि से भरे हुए स्वर में कहा- ''क्यों खींच लिया। मैं तो चला जा रहा था।''
''अगला स्टेशन आने दीजिए।''
''जब आप भगा ही रही हैं तो जितनी जल्द भाग जाऊँ उतना ही अच्छा।''
''मैं यह कब कहती हूँ कि आप चलती गाड़ी से कूद पडिए।''
''अगर मुझ पर इतनी दया है तो एक बार जरा दर्शन ही दे दो।''
''अगर आपकी स्त्री से कोई दूसरा पुरुष ऐसी बातें करता तो आपको कैसी लगतीं?''
पुरुष ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा- ''मैं उसका खून पी जाता।''
मैंने निस्संकोच होकर कहा- ''तो फिर आपके साथ मेरे पति क्या व्यवहार करेंगे, यह भी आप समझते होंगे?''
|