कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''तुम अपनी रक्षा आप ही कर सकती हो प्रिये, तुम्हें पति की मदद की जरूरत ही नहीं। अब आओ, मेरे गले से लग जाओ। मैं ही तुम्हारा भाग्यशाली स्वामी और सेवक हूँ।''
मेरा हृदय उछल पडा। एक बार मुँह से निकला ''अरे! आप!!'' और मैं, दूर हटकर खड़ी हो गई। एक हाथ लंबा घूँघट खींच लिया। मुँह से एक शब्द न निकला। स्वामी ने कहा- ''अब यह शर्म और परदा कैसा?''
मैंने कहा- ''आप बड़े छलिए हैं। इतनी देर तक मुझे रुलाने में क्या मज़ा आया?''
स्वामी- ''इतनी देर में मैंने तुम्हें जितना पहचान लिया, उतना घर के अंदर शायद बरसों में भी न पहचान सकता। यह अपराध क्षमा करो। क्या तुम सचमुच गाड़ी से कूद पड़ती?''
''अवश्य!''
''बड़ी खैरियत हुई, मगर यह दिल्लगी बहुत दिनों याद रहेगी।''
मेरे स्वामी औसत कद के, साँवले, चेचकरू, दुबले आदमी हैं, उनसे कहीं रूपवान् पुरुष मैंने देखे हैं पर मेरा हृदय कितना उल्लसित हो रहा था, कितनी आनंदमय संतुष्टि का अनुभव कर रही थी, मैं बयान नहीं कर सकती।''
मैंने पूछा- ''गाड़ी कब तक पहुँचेगी?''
''शाम को पहुँच जाएँगे।''
मैंने देखा स्वामी का चेहरा कुछ उदास हो गया है। वह दस मिनिट तक चुपचाप बैठे बाहर की तरफ़ ताकते रहे। मैंने केवल उन्हें बातों में लगाने ही के लिए यह अनावश्यक प्रश्न पूछा था, पर अब भी जब वह न बोले तो मैंने फिर न छेड़ा। पानदान खोलकर पान बनाने लगी। सहसा उन्होंने कहा- ''चंदा एक बात कहूँ?''
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