कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
मैंने कहा- ''बाहर चलते हो, मेरी तो बैठे-बैठे कमर दुख गई।''
विनोद बोले- ''हाँ-हाँ चलो, इधर-उधर टहल आवें।''
मैंने लापरवाही से कहा- ''तुम्हारा जी न चाहे तो मत चलो, मैं मजबूर नहीं करती।''
विनोद फिर अपनी जगह पर बैठते हुए बोले- ''अच्छी बात है।''
मैं बाहर आई तो बंगाली बाबू ने पूछा- ''क्या आप यहीं की रहनेवाली हैं?''
''मेरे पति यहाँ युनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं।''
''अच्छा! वह आपके पति थे। अजीब आदमी हैं।''
''आपको तो मैंने शायद यहाँ पहले ही देखा है।''
''हाँ, मेरा मकान तो बंगाल में है। कंचनपूर के महाराजा साहब का प्राइवेट सेक्रेटरी हूँ। महाराजा साहब वाइसराय से मिलने आते हैं।''
''तो अभी दो-चार दिन रहिएगा?''
''जी हाँ, आशा तो करता हूँ। रहूँ तो साल-भर रह जाऊँ, जाऊँ तो दूसरी गाड़ी से चला आऊँ। हमारे महाराजा साहब का कुछ ठीक नहीं। यों बड़े सज्जन और मिलनसार हैं। आपसे मिलकर बहुत खुश होंगे।''
यह बातें करते-करते हम रेस्ट्रां में पहुँच गए। बाबू ने चाय और टोस्ट लिया। मैंने सिर्फ़ चाय ली।
तो इसी वक्त आपका महाराजा साहब से परिचय करा दूँ। आपको आश्चर्य होगा कि मुकुटधारियों में भी इतनी नम्रता और विनय हो सकगी है। उनकी बातें सुनकर आप मुग्ध हो जाएँगी।
मैंने आइने में अपनी सूरत देखकर कहा- ''जी नहीं, फिर किसी दिन पर रखिए। आपसे तो अक्सर मुलाक़ात होती रहेगी। क्या आपकी स्त्री आपके साथ नहीं आई।''
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