कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
एक दिन मैंने झुँझलाकर रसोइए को निकाल दिया। सोचा जब लाला रात-भर भूखे सोएँगे तब आँखें खुलेंगी। मगर इस भले आदमी ने कुछ पूछा तक नहीं। चाय न मिली, कुछ परवा नहीं। ठीक दस बजे आपने कपड़े पहने, एक बार रसोई की ओर जाकर देखा, सन्नाटा था। बस कॉलेज चल दिए। एक आदमी पूछता है महाराज कहाँ गया, क्यों गया, अब क्या इंतजाम होगा, कौन खाना पकावेगा, कम-से-कम इतना तो मुझसे कह सकते थे कि तुम अगर नहीं पका सकतीं तो बाजार ही से कुछ खाना मँगवा लो। जब वह चले गए तो मुझे बड़ा पश्चात्ताप हुआ। रायल होटल से खाना मँगवाया और बैरे के हाथ कॉलेज भेज दिया, पर खुद भूखी ही रही। दिन-भर भूख के मारे बुरा हाल था। आप कॉलेज से आए और मुझे पड़े देखा तो (ऐसे परेशान हुए मानो मुझे त्रिदोष हो) उसी वक्त एक डाँक्टर बुला भेजा, डाँक्टर आए, आँख देखी, ज़बान देखी, हरारत देखी, लगाने की दवा अलग दी, पीने की अलग। आदमी दवा लेने गया। लौटा तो 12 रुपए का बिल भी था। मुझे इन सारी बातों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि कहाँ भागकर चली जाऊँ। उस पर आप आरामकुरसी डालकर मेरी चारपाई के पास बैठ गए और एक-एक पल पर पूछने लगे कैसा जी है? दर्द कुछ कम हुआ? यहाँ मारे भूख के आँतें कुलकुला रही थीं। दवा हाथ से छुई तक नहीं। आखिर झक मारकर मैंने फिर बैरे से खाना मँगवाया। फिर चाल उलटी पड़ी। मैं डरी कि कहीं सवेरे फिर यह महाशय डाँक्टर को न बुला बैठें, इसलिए सबेरा होते ही हार कर फिर घर के काम धंधे में लगी। उसी वक्त एक दूसरा महाराज बुलवाया। अपने पुराने महराज को बेक़सूर निकालकर दंड स्वरूप एक काठ के उल्लू को रखना पड़ा जो मामूली चपातियाँ भी नहीं पका सकता। उस दिन से एक नई बला गले पड़ी। दोनों वक्त दो घंटे इस महराज को सिखाने में लग जाते हैं। इसे अपनी पाक-कला का ऐसा घमंड है कि मैं चाहे जितना बकूँ पर करता अपने ही मन की है। उस पर बीच-बीच में मुस्कराने लगता है, मानो कहता हो कि ''तुम इन बातों को क्या जानो, चुपचाप बैठी देखती जाव।'' जलाने चली थी विनोद को, और खुद जल गई। रुपए खर्च हुए वह तो हुए ही, एक और जंजाल में फँस गई। मैं खूब जानती हूँ कि विनोद का डाँक्टर को बुलाना, या मेरे पास बैठे रहना केवल दिखावा था। उनके चेहरे पर जरा भी घबराहट न थी, चित्त जरा भी अशांत न था।
चंदा, मुझे क्षमा करना, मैं नहीं जानती कि ऐसे पुरुष के पाले पड़कर तुम्हारी क्या दशा होती, पर मेरे लिए इस दशा में रहना असह्य है। मैं आगे जो वृत्तांत कहने वाली हूँ उसे सुनकर तुम नाक भौं सिकोड़ोगी, मुझे कोसोगी, कलंकिनी कहोगी, पर जो चाहे कहो, मुझे परवा नहीं। आज चार दिन होते हैं मैंने त्रिया-चरित्र का एक नया अभिनय किया। हम दोनों सिनेमा देखने गए थे। वहाँ मेरे बगल में एक बंगाली बाबू बैठे हुए थे। विनोद सिनेमा में इस तरह बैठते हैं, मानो ध्यानावस्था में हों। न बोलना, न चालना। फ़िल्म इतना सुंदर था, ऐक्टिंग इतनी सजीव, कि मेरे मुँह से बार-बार प्रशंसा के शब्द निकल जाते थे। बंगाली बाबू को भी बड़ा आनंद आ रहा था। हम दोनों उस फ़िल्म पर आलोचनाएँ करने लगे। वह फ़िल्म के भावों की इतनी रोचक व्याख्या करता था कि मन मुग्ध हो जाता था। फ़िल्म से ज्यादा मज़ा मुझे उसकी बातों में आ रहा था। बहन सच कहती हूँ शक्ल सूरत में वह विनोद के तलुओं की बराबरी भी नहीं कर सकता, पर केवल विनोद को जलाने के लिए मैं उससे मुस्करा-मुस्कराकर बातें करने लगी। उसने समझा कोई शिकार फँस गया। अवकाश के समय वह बाहर जाने लगा, तो मैं भी उठ खड़ी हुई, पर विनोद अपनी जगह पर बैठे रहे।
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