कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
आनंद ने बिजली का बटन दबाते हुए कहा- ''और मैंने कसम खाली कि रात-भर बत्ती जलेगी, चाहे किसी को बुरा लगे या भला। सब कुछ देखता हूँ अँधा नहीं हूँ। दूसरी बहू आकर इतनी सेवा करेगी तो देखूँगा। तुम हो नसीब की खोटी कि ऐसे प्राणियों के पाले पड़ी। किसी दूसरी सास की तुम इतनी खिदमत करतीं, तो वह तुम्हें पान की तरह फेरती, तुम्हें हाथों पर लिए रहती, मगर यहाँ चाहे कोई प्राण ही दे दे, किसी के मुँह से सीधी बात न निकलेगी।''
मुझे अपनी भूल साफ़ मालूम हो गई। उनका क्रोध शांत करने के इरादे से बोली- ''ग़लती तो मेरी ही थी कि व्यर्थ आधी रात तक बत्ती जलाए बैठी रही। अम्माँजी ने गुल करने को कहा, तो क्या बुरा कहा। मुझे समझाना, अच्छी सीख देना उनका धर्म है। मेरा धर्म भी यही है कि यथाशक्ति उनकी सेवा करूँ और उनकी शिक्षा को गिरह बांधूँ।''
आनंद एक क्षण द्वार की ओर ताकते रहे। फिर बोले- ''मुझे मालूम हो रहा है कि इस घर में मेरा अब गुज़र न होगा। तुम नहीं कहतीं, मगर मैं सब कुछ सुनता रहता हूँ। सब समझता हूँ। तुम्हें मेरे पापों का प्रायश्चित करना पड़ रहा है। मैं कल अम्माँजी से साफ़-साफ़ कह दूँगा कि 'अगर आपका यही व्यवहार है, तो आप अपना घर लीजिए, मैं अपने लिए कोई दूसरी राह निकाल लूँगा।''
मैंने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा- ''नहीं, नहीं, कहीं ऐसा गजब भी न करना। मेरे मुँह में आग लगे कहाँ से बत्ती का जिक्र कर बैठी। मैं तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ मुझे न सासजी से कोई शिकायत है, न ननदजी से, दोनों मुझसे बड़ी हैं-मेरी माता के तुल्य हैं-और एक बात कड़ी भी कह दें, तो मुझे सब्र करना चाहिए। तुम उनसे कुछ न कहना, नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा।''
आनंद ने रुँधे कंठ से कहा- ''तुम्हारी जैसी बहू पाकर भी अम्माँजी का कलेजा नहीं पसीजता, अब क्या कोई स्वर्ग की देवी घर में आती। तुम डरो मत, मैं ख्वाम-ख्वाह लड़ूंगा नहीं, मगर ही, इतना अवश्य कह दूँगा कि जरा अपने मिज़ाज को क़ाबू में रखें। आज अगर मैं 2-4 सौ रुपए घर में लाता होता, तो कोई चूँ न करता। कुछ कमाकर नहीं लाता, यह उसी का दंड है। सच पूछो तो मुझे विवाह करने का कोई अधिकार ही न था। मुझ जैसा मंदबुद्धि जो कौड़ी कमा नहीं सकता, उसे अपने साथ किसी महिला को डुबाने का क्या हक़ था। बहनजी को न जानें क्या सूझी है कि तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं। ससुराल का सफ़ाया कर दिया, अब यहाँ भी आग लगाने पर तुली हुई हैं। बस, पिताजी का लिहाज करता हूँ नहीं इन्हें तो एक दिन में ठीक कर देता।''
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