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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


बहन, उस वक्त तो मैंने किसी तरह उन्हें शांत किया, नहीं कह सकती कि कब वह उबल पड़ें। मेरे लिए वे सारी दुनिया से लड़ाई मोल ले लेंगे। मैं जिन परिस्थितियों में हूँ उनका तुम अनुमान कर सकती हो। मुझ पर कितनी ही मार पड़े मुझे रोना न चाहिए, जबान तक न हिलाना चाहिए। मैं रोई और घर तबाह हुआ। आनंद फिर कुछ न सुनेंगे, कुछ न देखेंगे। कदाचित् इस उपाय से वह अपने विचार में मेरे हृदय में अपने प्रेम का अंकुर जमाना चाहते हों। आज मुझे मालूम हुआ के यह कितने क्रोधी हैं। अगर मैंने ज़रा-सा पुचारा दे दिया होता, तो रात ही को वह सासजी की खोपड़ी पर जा पहुँचते। कितनी ही युवतियाँ इसी अधिकार के गर्व में अपने को भूल जाती हैं। मैं तो बहन, ईश्वर ने चाहा तो कभी न भूलूँगी। मुझे इस बात का डर नहीं है कि आनंद अलग घर बना लेंगे, तो गुजर कैसे होगा। मैं उनके साथ सब कुछ झेल सकती हूँ लेकिन घर तो तबाह हो जाएगा।

बस, प्यारी पद्मा, आज इतना ही। पत्र का जवाब जल्द देना।

तुम्हारी
चंदा


देहली
5-2-26

प्यारी चंदा,
क्या लिखूँ मुझ पर तो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा! हाय वह चले गए, मेरे विनोद का तीन दिन से पता नहीं-निर्मोही चला गया, मुझे छोड़कर, बिना कुछ कहे सुने चला गया-अभी तक रोई नहीं, जो लोग पूछने आते हैं, उनसे बहाना कर देती हूँ कि दो-चार दिन में आएँगे, एक काम से काशी गए हैं। मगर जब रोऊँगी, तो यह शरीर उन आँसुओं में डूब जाएगा, प्राण उसी में विसर्जित हो जाएँगे। छलिए ने मुझसे कुछ भी नहीं कहा, रोज की तरह उठा, भोजन किया, विद्यालय गया, नियत समय पर लौटा, रोज की तरह मुस्कराकर मेरे पास आया, हम दोनों ने जल-पान किया, फिर वह दैनिक पत्र पढ़ने लगे, मैं टेनिस खेलने चली गई, इधर कुछ दिनों से उन्हें टेनिस से कुछ प्रेम न रहा था, मैं अकेली ही जाती थी। लौटी तो रोज ही की तरह उन्हें बरामदे में टहलते और सिगार पीते देखा। मुझे देखते ही वह रोज की तरह मेरा ओवरकोट लाए और मेरे ऊपर डाल दिया। वरामदे से नीचे उतरकर खुले मैदान में हम टहलने लगे। मगर वह ज्यादा बोले नहीं, किसी विचार में डूबे रहे। जब ओस अधिक पड़ने लगी, तो हम दोनों फिर अंदर चले आए। उसी वक्त वह बंगाली महिला आ गई, जिनसे मैंने वीणा सीखना शुरू किया है। विनोद भी मेरे साथ ही बैठे रहे। संगीत उन्हें कितना प्रिय है, यह तुम्हें लिख चुकी हूँ। कोई नई बात नहीं हुई। महिला के चले जाने के बाद हमने साथ-ही-साथ भोजन किया, फिर मैं अपने कमरे में लेटने आई, वह रोज की तरह अपने कमरे में लिखने-पढ़ने चले गए। मैं जल्द ही सो गई, लेकिन जब वह मेरे कमरे में आए, तो मेरी आँख खुल गई। मैं नींद में कितनी बेखबर पड़ी रहूँ उनकी आहट पाते ही आप-ही-आप आँखें खुल जाती हैं। मैंने देखा, वह अपना हरा शाल ओढ़े खड़े थे। मैंने उनकी ओर हाथ बढ़ाकर कहा- आओ, खड़े क्यों हो और फिर सो गई। बस, प्यारी बहन! यही विनोद के अंतिम दर्शन थे। कह नहीं सकती, वह पलँग पर लेटे या नहीं। इन आँखों में न जाने कौन-सी महानिद्रा समाई हुई थी। प्रात: उठी, तो विनोद को न पाया। मैं उनसे पहले उठती हूँ वह पड़े सोते रहते हैं, पर आज वह पलँग पर न थे। शाल भी न था, मैंने समझा शायद अपने कमरे में चले गए हों। स्नान-गृह मैं चली गई। आध घंटे में बाहर आई, फिर भी वह न दिखाई दिए। उनके कमरे में गई, वहाँ भी न थे। आश्चर्य हुआ, इतने सवेरे कहाँ चले गए। सहसा खूँटी पर आँख पड़ी - कपड़े न थे। किसी से मिलने चले गए? या स्नान के पहले सैर करने की ठानी। कम-से-कम मुझसे कह तो देते, संशय में तो जी न पड़ता। क्रोध आया - मुझे लौंडी समझते हैं।

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