लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

133 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


बहन, मैंने विनोद को बुलाने की, खींच लाने की, पकड़ मँगाने की एक तरकीब सोची है। क्या कहूँ पहले ही दिन यह तरकीब क्यों न सूझी। विनोद को दैनिक पत्र पढ़े बिना चैन नहीं आता और वह कौन-सा पत्र पढ़ते हैं, मैं यह भी जानती हूँ; कल के पत्र में यह खबर छपेगी 'पद्या मर रही है' और परसों विनोद यहाँ होंगे - रुक ही नहीं सकते। फिर खूब झगड़े होंगे, खूब लड़ाइयाँ होंगी।

अब कुछ तुम्हारे विषय में। क्या तुम्हारी बुढ़िया सचमुच तुमसे इसलिए जलती है कि तुम सुंदरी हो, शिक्षित हो, खूब! और तुम्हारे आनंद भी विचित्र जीव मालूम होते हैं। मैंने तो सुना है कि पुरुष कितना ही कुरूप हो, पर उसकी निगाह अप्सराओं ही पर जाकर पड़ती है। फिर आनंद बाबू तुमसे क्यों बिचकते हें। जरा गौर से देखना कहीं राधा और कृष्ण के बीच में कोई कुब्जा तो नहीं। अगर सासजी यों ही नाक में दम करती रहें, तो मैं तो यही सलाह दूँगी कि अपनी झोपड़ी अलग बना लो। मगर जानती हूँ? तुम मेरी यह सलाह न मानोगी, किसी तरह न मानोगी। इस सहिष्णुता के लिए मैं तुम्हें बधाई देती हूँ। पत्र जल्द लिखना। मगर शायद तुम्हारा पत्र आने कं पहले ही मेरा दूसरा पत्र पहुँचे।

तुम्हारी
पद्मा


काशी  
10-2-26

प्रिय पद्मा,
कई दिन तक तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करने के बाद आज यह खत लिख रही हूँ। मैं अब भी आशा कर रही हूँ कि विनोद बाबू घर आ गए होंगे, मगर अभी वह न आए हों और तुम रो-रोकर अपनी आँखें फोड़े डालती हो तो मुझे जरा भी दुःख न होगा। तुमने उनके साथ जो अन्याय किया है, उसका यही दंड है! मुझे तुमसे जरा भी सहानुभूति नहीं है। तुम गृहिणी होकर वह कुटिल क्रीड़ा करने चली थीं जो प्रेम का सौदा करनेवाली स्त्रियों को शोभा देता है। मैं तो जब खुश होती कि विनोद ने तुम्हारा गला घोंट दिया होता और भुवन के कुसंस्कारों को सदा के लिए शांत कर देते। तुम चाहे मुझसे रूठ ही क्यों न जाओ, पर मैं इतना जरूर कहूँगी कि तुम विनोद के योग्य नहीं हो; शायद तुम उस पति से प्रसन्न रहतीं जो प्रेम के नए-नए स्वाँग भरकर तुम्हें जलाया करता। शायद तुमने अंग्रेजी किताबों में पढ़ा होगा कि स्त्रियाँ छैले रसिकों पर ही जान देती हैं और यह पढ़कर तुम्हारा सिर फिर गया है। तुम्हें नित्य कोई सनसनी चाहिए, अन्यथा तुम्हारा जीवन शुष्क हो जाएगा। तुम भारत की पति-परायण रमणी नहीं, योरप की आमोद-प्रिय युवती हो। मुझे तुम्हारे ऊपर दया आती है। तुमने अब तक रूप को ही आकर्षण का मूल समझ रखा है; रूप में आकर्षण है, मानती हूँ लेकिन उस आकर्षण का नाम मोह है; वह स्थाई नहीं, केवल धोखे की टट्टी है। प्रेम का एक ही मूल मंत्र है, और वह सेवा है। यह मत समझो कि जो पुरुष तुम्हारे ऊपर भ्रमर की भाँति मँडलाया करता है, वह तुमसे प्रेम करता है। उसकी यह रूपासक्ति बहुत दिनों तक नहीं रहेगी। प्रेम का अंकुर रूप में है, पर उसको पल्लवित और पुष्पित करना सेवा ही का काम है। मुझे विश्वास नहीं आता कि विनोद को बाहर से थके-माँदे, पसीने में तर देखकर तुमने कभी पंखा झला होगा। शायद टेबुल-फैन लगाने की बात भी तुम्हें न सूझी होगी। सच कहना, मेरा अनुमान ठीक है या नहीं। बतलाओ तुमने कभी उनके पैरों में चम्पी की है? कभी उनके सिर में तेल डाला है? तुम कहोगी यह खिदमतगारों का काम है, लेडियाँ यह मरज़ नहीं पालती। तुमने उस आनंद का अनुभव ही नहीं किया। तुम विनोद को अपने अधिकार में रखना चाहती हो, मगर उसका साधन नहीं करतीं। विलासिनी मनोरंजन कर सकती है, चिरसंगिनी नहीं बन सकती। पुरुष के गले से लिपटी हुई भी वह उससे कोसों दूर रहती है। मानती हूँ रूपमोह मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन रूप से हृदय की प्यास नहीं बुझती, आत्मा की तृप्ति नहीं होती। सेवाभाव रखनेवाली रूप-विहीन स्त्री का पति किसी स्त्री के रूप-जाल में फँस जाए तो बहुत जल्द निकल भागता है, सेवा का चस्का पाया हुआ मन केवल नखरों और चोंचलों पर लट्टू नहीं होता। मगर मैं तो तुम्हें उपदेश करने बैठ गई, हालाँकि तुम मुझसे दो-चार महीने बड़ी होगी। क्षमा करो बहन, यह उपदेश नहीं है। ये बातें हम, तुम, सभी जानते हैं, केवल कभी-कभी भूल जाते हैं। मैंने केवल तुम्हें याद दिला दिया है। उपदेश में हृदय नहीं होता लेकिन मेरा उपदेश मेरे मन की वह व्यथा है जो तुम्हारी इस नई विपत्ति से जागृत हुई है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book