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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


अच्छा; अब मेरी रामकहानी सुनो। इस एक महीने में यहाँ बड़ी-बड़ी घटनाएँ हो गई। यह तो मैं पहले ही लिख चुकी हूँ कि आनंद बाबू और अम्माँजी में कुछ मनमुटाव रहने लगा है। वह आग भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती थी। दिन में दो एक बार माँ-बेटे में चोंचें हो जाती थीं। एक दिन मेरी छोटी ननदजी मेरे कमरे से एक पुस्तक उठा ले गईं। उन्हें पढ़ने का रोग है। मैंने कमरे में किताब न देखी तो उनसे पूछा। इस ज़रा-सी बात पर वह भलेमानस बिगड़ गई और कहने लगी तुम तो मुझे चोरी लगाती हो। अम्माँ ने भी उन्हीं का पक्ष लिया और मुझे खूब सुनाईं। संयोग की बात अम्माँजी मुझे कोसे ही जा रही थीं कि आनंद बाबू घर में आ गए। अम्माँजी उन्हें देखते ही और जोर से बकने लगीं- ''बहू की इतनी मजाल! यह तूने सिर चढ़ा रखा है और कोई बात नहीं। पुस्तक क्या उसके बाप की थी! लड़की लाई तो उसने कौन गुनाह किया। जरा भी सब्र न हुआ, दौड़ी हुई उसके सिर पर जा पहुँची और उसके हाथों से किताब छीनने लगी।''

बहन, मैं यह स्वीकार करती हूँ कि मुझे पुस्तक के लिए इतनी उतावली न करनी चाहिए थी। ननदजी पढ़ चुकने पर आप ही दे जातीं। न भी देतीं तो उस एक पुस्तक के न पढ़ने से मेरा क्या बिगड़ जाता था। मगर मेरी शामत कि उनके हाथों से किताब छीनने लगी थी। अगर इस बात पर आनंद बाबू मुझे डाँट बताते तो मुझे जरा भी दुःख न होता। मगर उन्होंने उल्टे मेरा ही पक्ष लिया और त्योरियाँ चढ़ाकर बोले- ''किसी की चीज़ कोई बिना पूछे लाए ही क्यों? यह तो मामूली शिष्टाचार है।'' इतना सुनना था कि अम्माँ के सिर पर भूत-सा सवार हो गया। आनंद बाबू भी बीच-बीच में फुलझड़ियाँ छोड़ते रहे। और मैं अपने कमरे में बैठी रोती रही कि कहाँ-से-कहाँ मैंने किताब माँगी। न अम्माँजी ही ने भोजन किया, न आनंद बाबू ने ही और मेरा तो बार-बार यही जी चाहता था कि जहर खा लूँ। रात को जब अम्माँजी लेटी, तो मैं अपने नियम के अनुसार उनके पैर दबाने गई। मुझे देखते ही उन्होंने दुतकार दिया, लेकिन मैंने उनके पाँव पकड़ लिए। मैं पैताने की ओर तो थी ही, अम्माँजी ने जो पैरों ही से मुझे ढकेला तो मैं चारपाई के नीचे गिर पड़ी। जमीन पर कई कटोरियाँ पढ़ी हुई थीं। मैं उन कटोरियों पर गिरी, तो पीठ और कमर में बड़ी चोट आई। मैं चिल्लाना न चाहती थी, मगर न जाने कैसे मेरे मुँह से चीख निकल गई। आनंद बाबू अपने कमरे में आ गए थे, मेरी चीख सुनकर दौड़ पड़े और अम्माँजी के द्वार पर आकर बोले- ''क्या उसे मारे डालती हो अम्माँ। अपराधी तो मैं हूँ उसकी जान क्यों ले रही हो!'' यह कहते हुए वह कमरे में घुस आए और मेरा हाथ पकड़कर जबरदस्ती खींच ले गए। मैंने बहुत चाहा कि अपना हाथ छुड़ा लूँ पर आनंद ने न छोड़ा। वास्तव में इस समय उनका हम लोगों के बीच में कूद पड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था। वह न आ जाते, तो मैंने रो-धोकर अम्माँजी को मना लिया होता। मेरे गिर पड़ने से उनका क्रोध कुछ शांत हो चला था। आनंद का आ जाना ग़ज़ब हो गया। अम्माँजी कमरे के बाहर निकल आई और मुँह चिढ़ाकर बोलीं- ''हाँ, देखो मरहम-पट्टी कर दो, कहीं कुछ टूट-फूट न गया हो?''

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