कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
बहन, और किसी समय इस प्रेम-आग्रह से भरे हुए शब्दों ने न जाने क्या कर दिया होता। ऐसे ही आग्रहों पर रियासतें मिटती हैं, नाते टूटते हैं; रमणी के पास इससे बढ़कर दूसरा अस्त्र नहीं। मैंने आनंद के गले में बाँहें डाल दी थीं और उनके कँधे पर सिर रखकर रो रही थीं। मगर इस समय आनंद बाबू इतने कठोर हो गए थे कि यह आग्रह भी उन पर कुछ असर न कर सका। जिस माता ने जन्म दिया, उसके प्रति इतना रोष! हम अपनी ही माता की एक कड़ी बात नहीं सह सकते, इस आत्माभिमान का कोई ठिकाना है। यही, वे आशाएँ हैं जिन पर माता ने अपने जीवन के सारे सुख-विलास अर्पण कर दिए थे, दिन का चैन और रात की नींद अपने ऊपर हराम कर ली थी! पुत्र पर माता का इतना भी अधिकार नहीं!
आनंद ने उसी अविचलित कठोरता से कहा- ''अगर मुहब्बत का यही अर्थ है कि मैं इस घर में तुम्हारी दुर्गति कराऊँ, तो मुझे वह मुहब्बत नहीं है।''
प्रातःकाल वह उठकर बाहर जाते हुए मुझसे बोले- '''मैं जाकर घर ठीक किए आता हूँ। ताँगा भी लेता आऊँगा, तैयार रहना।''
मैंने दरवाजा रोककर कहा- ''क्या अभी तक क्रोध शांत नहीं हुआ?''
''क्रोध की बात नहीं, केवल दूसरों के सिर से अपना बोझ हटा लेने की बात है।''
''यह अच्छा काम नहीं कर रहे हो। सोचो, माताजी को कितना दुख होगा। ससुरजी से भी तुमने कुछ पूछा?''
''उनसे पूछने की कोई जरूरत नहीं। कर्ता-धर्ता जो कुछ हैं वह अम्माँ है। दादाजी मिट्टी के लोंदे हैं।''
''घर के स्वामी तो हैं?''
''तुम्हें चलना है या नहीं, साफ़ कहो।''
''मैं तो अभी न जाऊँगी।''
''अच्छी बात है, लात खाओ।''
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