कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
|
8 पाठकों को प्रिय 133 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''यह तुम्हारा भ्रम है। उन्होंने मुझे मारा नहीं, अपना पैर छुड़ा रही थीं। मैं पट्टी पर बैठी थी। ज़रा-सा धक्का खाकर गिर पड़ी। अम्माँजी मुझे उठाने ही जा रही थीं कि तुम पहुँच गए।''
''नानी के आगे नन्हिहाल का बखान न करो, मैं अम्माँ को खूब जानता हूँ। मैं कल ही दूसरा घर ले लूँगा, यह मेरा निश्चय है। कहीं-न-कहीं नौकरी मिल ही जाएगी। यह लोग समझते हैं कि मैं इनकी रोटियों पर पड़ा हुआ हूँ। इसी से यह मिजाज हैं।''
मैं जितना ही उनको समझाती थी, उतना वह और बफरते थे। आखिर मैंने झुँझलाकर कहा- ''तो तुम अकेले जाकर दूसरे घर में रहो। मैं न जाऊँगी। मुझे यहीं पड़ी रहने दो।''
आनंद ने मेरी ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा- ''यहाँ लातें खाना अच्छा लगता है?''
''हाँ, मुझे यही अच्छा लगता है?''
''तो तुम खाओ, मैं नहीं खाना चाहता। यही फ़ायदा क्या थोड़ा है कि तुम्हारी दुर्दशा आँखों से न देखूँगा। न देखूँगा, न पीड़ा होगी।''
''अलग रहने लगोगे, तो दुनिया क्या कहेगी।''
''इसकी परवा नहीं। दुनिया अंधी है।''
''लोग यही कहेंगे कि स्त्री ने यह माया फैलाई है।''
''इसकी भी परवा नहीं, इस भय से अपना जीवन संकट में नहीं डालना चाहता।''
मैंने रोकर कहा- ''तुम मुझे छोड़ दोगे, तुम्हें मेरी जरा भी मुहब्बत नहीं है।''
|