कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
|
8 पाठकों को प्रिय 133 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''पहले तुम कुछ भोजन कर लो तो पीछे मैं कुछ बात करूँगा।''
''मेरे भोजन की आपको फ़िक्र पड़ी है। आप तो सैर-सपाटे कर रहे हैं।''
''जैसे सैर-सपाटे मैंने किए हैं, मेरा दिल ही जानता है। मगर बातें पीछे करूँगा, अभी मुँह हाथ धोकर खा लो। चार दिन से पानी तक मुँह में नहीं डाला। राम! राम!''
''यह आपसे किसने कहा कि मैंने चार दिन से पानी तक मुँह में नहीं डाला। जब आपको मेरी परवा न थी तो मैं क्यों दाना-पानी छोड़ती।''
''वह तो सूरत ही कहे देती है। फूल से.... मुरझा गए।''
''जरा अपनी सूरत जाकर आईने में देखिए।''
''मैं पहले ही कौन बड़ा सुंदर सा। ठूँठ को पानी मिले तो क्या और न मिले तो क्या। मैं न जानता था कि तुम यह अनशन व्रत ले लोगी, नहीं ईश्वर जानता है अम्माँ मार-मारकर भगाती तो भी न जाता।''
मैंने तिरस्कार की टृष्टि से देखकर कहा - ''तो क्या सचमुच तुम समझे थे कि मैं यहाँ आराम के विचार से रह गई?''
आनंद ने जल्दी से अपनी भूल मुधारो- ''नहीं-नहीं प्रिये, मैं इतना गधा नहीं हूँ पर यह मैं कदापि न समझता था कि तुम बिलकुल दाना-पानी छोड़ दोगी। बड़ी कुशल हुई कि मुझे महराज मिल गया, नहीं तो तुम प्राण ही दे देतीं। अब ऐसी भूल कभी न होगी, कान पकड़ता हूँ। अम्माँजी तुम्हारा बखान करके रोती रहीं।''
मैंने प्रसन्न होकर कहा- ''तब तो मेरी तपस्या सुफल हो गई।''
''थोड़ा-सा दूध पी लो, तो बातें हों। जाने कितनी बातें करनी हैं।''
|