कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
''पी लूँगी ऐसी क्या जल्दी है।''
''जब तक तुम कुछ खा न लोगी, मैं यही समझूँगा कि तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया।''
''मैं भोजन जभी करूँगी, जब तुम यह प्रतिज्ञा करो कि फिर कभी इस तरह रूठकर न जाओगे।''
''मैं सच्चे दिल से यह प्रतिज्ञा करता हूँ।''
बदन, तीन दिन कष्ट तो हुआ, पर मुझे उसके लिए जरा भी पछतावा नहीं है। इन तीन दिनों के अनशन ने दिलों में जो सफ़ाई कर दी, वह किसी दूसरी विधि से कदापि न होती। मुझे विश्वास है कि हमारा जीवन शांति से व्यतीत होगा।
अपने समाचार शीघ्र, अति शीघ्र लिखना।
चंदा
देहली
20-2-26
प्यारी बहन,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे तुम्हारे ऊपर दया आई। तुम मुझे कितना ही बुरा कहो, पर मैं अपनी यह दुर्गति किसी तरह न सह सकती, किसी तरह नहीं। मैंने या तो अपने प्राण दे दिए होते, या फिर उस सास का मुँह न देखती। तुम्हारा सीधापन, तुम्हारी सहनशीलता, तुम्हारी सास-भक्ति तुम्हें मुबारक हो। मैं तो तुरंत आनंद के साथ चली जाती और चाहे भीख ही क्यों न माँगनी पड़ती, पर उस घर में क़दम न रखती। मुझे तुम्हारे ऊपर दया ही नहीं आती, क्रोध भी आता है, इसलिए कि तुममें स्वाभिमान नहीं है। तुम जैसी स्त्रियों ने ही सासों और पुरुषों का मिज़ाज आसमान पर चढ़ा दिया है। जहन्नुम में जाए ऐसा घर जहाँ अपनी इज्जत नहीं। मैं पति-प्रेम भी इन दामों न लूँ। तुम्हें उन्नीसवीं सदी में जन्म लेना चाहिए था। उस वक्त तुम्हारे गुणों की प्रशंसा होती। इस स्वाधीनता और नारी-स्वत्व के नवयुग में तुम केवल प्राचीन इतिहास हो। यह सीता और दमयंती का युग नहीं। पुरुषों ने बहुत दिनों राज्य किया। अब स्त्री-जाति का राज्य होगा। मगर अब तुम्हें अधिक न कोसूँगी।
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