लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

133 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


अब मेरे मन में फिर शंकाएँ उठने लगीं। विनोद कुसुम के पास क्यों गए, कहीं कुसुम से उन्हें प्रेम तो नहीं है? कहीं उसी प्रेम के कारण तो वह मुझसे विरक्त नहीं हो गए? कुसुम कोई कौशल तो नहीं कर रही है? उसे विनोद को अपने घर ठहराने का अधिकार ही क्या था। इस विचार से मेरा मन बहुत क्षुब्ध हो उठा। कुसुम पर क्रोध आने लगा। अवश्य दोनों में बहुत दिनों से पत्र-व्यवहार होता रहा होगा। मैंने फिर कुसुम का पत्र पढ़ा और अबकी उसके प्रत्येक शब्द में मेरे लिए कुछ सोचने की सामग्री रखी हुई थी। निश्चय किया कि कुसुम को एक पत्र लिखकर खूब कोसूँ। आधा पत्र लिख भी डाला, पर उसे फाड़ डाला, उसी वक्त विनोद को एक पत्र लिखा। तुमसे कभी भेंट होगी तो वह पत्र दिखाऊँगी, जो कुछ मुँह में आया बक डाला, लेकिन इस पत्र की भी वही दशा हुई जो कुसुम के पत्र की हुई थी। लिखने के बाद मालूम हुआ कि यह किसी विक्षिप्त हृदय की बकवाद है। मेरे मन में यही बात बैठती जाती थी कि वह कुसुम के पास हैं। वही छलिनी उन पर अपना जादू चला रही है। यह दिन भी बीत गया। डाकिया कई बार आया, पर मैंने उसकी ओर आँख भी नहीं उठाई। चंदा, मैं नहीं कह सकती मेरा हृदय तिलमिला रहा था। अगर कुसुम इस समय मुझे मिल जाती तो मैं न जाने क्या कर डालती।

रात को लेटे-लेटे ख्याल आया कहीं वह योरप न चले गए हों। जी बेचैन हो उठा। सिर में ऐसा चक्कर आने लगा, मानो पानी में डूबी जाती हूँ। अगर वह योरप चले गए तो फिर कोई आशा नहीं- मैं उसी वक्त उठी और घड़ी पर नज़र डाली। दो बजे थे। नौकर को जगाया और तार घर जा पहुँची। बाबूजी कुरसी पर लेटे-लेटे सो रहे थे। बड़ी मुश्किल से उनकी नींद खुली। मैंने रसीदी तार दिया। जब बाबूजी तार दे चुके, तो मैंने पूछा- ''इसका जवाव कब तक आवेगा?''

बाबू ने कहा- ''यह प्रश्न किसी ज्योतिषी से कीजिए। कौन जानता है वह कब जवाब दें। तार का चपरासी ज़बरदस्ती तो उनसे जवाब नहीं लिखा सकता। अगर कोई और कारण न हो, तो 6-9 वजे तक जवाब आ जाना चाहिए।''

घ्रवराहट में आदमी की बुद्धि पलायन कर जाती है। ऐसा निरर्थक प्रश्न करके मैं स्वयं लज्जित हो गई। बाबूजी ने अपने मन में मुझे कितना मूर्ख समझा होगा; खैर, मैं वहीं एक बैंच पर बैठ गई, और तुम्हें विश्वास न आवेगा, नौ बज तक वहीं बैठी रही। सोचो कितने घंटे हुए! है सात घंटे सैकड़ों आदमी आए और गए, पर मैं वहीं जमी बैठी रही। जब तार का डमी खटकता मेरे हृदय में धड़कन होने लगती, लेकिन इस भय से कि बाबूजी झल्ला न उठें, कुछ पूछने का साहस न करती थी। जब दफ्तर की घड़ी मे नौ बजे, तो मैंने डरते-डरते बाबू से पूछा- ''क्या अभी तक जवाब नहीं आया?''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book