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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


वाबू ने कहा- ''आप तो यहीं बैठी हैं, जवाब आता तो क्या मैं खा डालता।'' मैंने बेहयाई करके फिर पूछा- ''तो क्या अब न आवेगा?'' वाबू ने मुँह फेरकर कहा- ''और दो-चार घंटे बैठी रहिए।''

बहन, यह वाग्बाण शर के समान हृदय में लगा। आँखें भर आई, लेकिन फिर भी मैं वहाँ से टली नहीँ। अब भी आशा बँधी हुई थी कि शायद जवाब आता हो। जब दो घंटे और गुजर गए, तब मैं निराश हो गई। हाय! विनोद ने मुझे कहीं का न रखा। मैं घर चली तो आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। रास्ता न सूझता था। सहसा पीछे से एक मोटर का हार्न सुनाई दिया। मैं रास्ते से हट गई। उस वक्त मन में आया, इसी मोटर के नीचे लेट जाऊँ और जीवन का अंत कर दूँ। मैंने औँखैं पोंछकर मोटर की ओर देखा, भुवन बैठा हुआ था, और उसकी बगल में बैठी हुई थी कुसुम! ऐसा जान पड़ा, मानो अग्नि की ज्वाला मेरे पैरों से समाकर सिर से निकल गई। मैं उन दोनों की निगाह से वचना चाहती थी, लेकिन मोटर रुक गई और कुसुम उतर कर मेरे गले से लिपट गई। भुवन चुपचाप मोटर में बैठा रहा, माना मुझे जानता ही नहीं। निर्दयी, धूर्त!

कुसुम ने पूछा- ''मैं तो तुम्हारे पास जाती थी बहन! वहाँ से कोई खवर आई?'' मैंने बात टालने के लिए कहा- ''तुम कब आईं?''

भुवन के सामने मैं अपनी विपत्ति-कथा न कहना चाहती थी।

कुसुम- 'आओ, कार में बैठ जाओ।''

''नहीं, मैं चली जाऊँगी। अवकाश मिले, तो एक बार चली आना।''

कुसुम ने मुझसे आग्रह न किया। कार में बैठकर चल दी। मैं खड़ी ताकती रह गई। यह वही कुसुम है या कोई और? कितना बड़ा अंतर हो गया है!

मैं घर चली तो सोचने लगी भुवन से इसकी जान-पहचान कैसे हुई? कहीं ऐसा तो नहीं है कि विनोद ने इसे मेरी टोह लेने को भेजा हो। भुवन से मेरे विषय में कुछ पूछने तो नहीं आई है?

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