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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


सब औरतें हाथ उठा-उठाकर पंडित जी को जानोमाल की दुआएँ देने लगीं। कोलेसरी ने कहा- ''वाह! यह जहमत मेरे सिर डाल दी।''

पंडित जी (मुस्कराकर) - ''पानी में पैर रखा है तो आप तैरना सिखोगी।''

कोलेसरी- ''मुझे हिसाब-किताब कुछ आता भी है?''

पंडित जी- ''सब खुद-ब-खुद आ जाएगा। तुम्हें उपदेश करना कब आता था? तुम तो औरतों से बोलती लजाती थीं। अभी दो हफ्ते हुए, तुम्हीं ने इन लोगों से मिलने की मनाही की थी। आज तुम उन्हें बहन समझ रही हो। तब तुम्हारा दाँव था, अब मेरा दाँव है।''

कोलेसरी (हँसकर) - ''तुमने मुझे फाँसने के लिए जाल फैलाया था।''

पंडित जी- ''यह जाल दोनों तरफ़ से फैला हुआ है।''

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4. दुस्साहस

लखनऊ के नौबस्ते मोहल्ले में एक मुंशी मैकूलाल मुख्तार रहते थे। बड़े उदार, दयालु और सज्जन पुरुष थे। अपने पेशे में इतने कुशल थे कि ऐसा बिरला ही कोई मुकदमा होता था जिसमें वह किसी न किसी पक्ष की ओर से न रखे जाते हों। साधु-संतों से भी उन्हें प्रेम था। उनके सत्संग से उन्होंने तत्त्वज्ञान और कुछ गाँजे-चरस का अभ्यास प्राप्त कर लिया था। रही शराब, यह उनकी कुल-प्रथा थी। शराब के नशे में वह कानूनी मसौदे खूब लिखते थे, उनकी बुद्धि प्रज्ज्वलित हो जाती थी। गाँजे और चरस का प्रभाव उनके ज्ञान पर पड़ता था। दम लगा कर वह वैराग्य और ध्यान में तल्लीन हो जाते थे। मोहल्लेवालों पर उनका बड़ा रोब था। लेकिन वह उनकी कानूनी प्रतिभा का नहीं; उनकी उदार सज्जनता का फल था। मोहल्ले के एक्केवान, ग्वाले और कहार उनके आज्ञाकारी थे, सौ काम छोड़ कर उनकी खिदमत करते थे। उनकी मद्यजनित उदारता ने सबों को वशीभूत कर लिया था।

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