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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


पंडित जी सीधे दीवानखाने में गए। कपड़े उतारे। नौकरों से कह दिया- ''अंदर खबर मत करना'' और खुद दीवानखाने की खिड़की से अंदर का तमाशा देखने लगे। आँगन में सफेद फ़र्श बिछा हुआ था और उस पर तीन-चार सौ औरतें दहकानी अंदाज़ से बनी-सँवरी हुई बैठी हुई थीं। कोई हँसती था, कोई बातें करती थी और कोलेसरी हाथ में थाल लिए सबको पान और इलायची तक़सीम कर रही थी। बच्चों को खिलौने और मिठाइयाँ देती और प्यार करती थी। पान तक़सीम हो चुका तो गाना होने लगा। कोलेसरी ने आज मोटी साड़ी पहनी थी और गहने उतार दिए थे। वह ढोल लेकर बैठ गई और औरतों के साथ गाने लगी। पंडित जी बैठे ये सब क़ैफ़ियत देख रहे थे। हर्षातिरेक से दिल में गुदगुदी हो रही थी। जी यही चाहता था कि चलकर कोला को गले से लगा लूँ।

गाना खत्म होने के बाद कोलेसरी ने पंद्रह मिनट तक ठेठबोली में औरतों को उपदेश दिया और तब मजलिस बरखास्त हुई। कोलेसरी औरतों को गले लगा-लगाकर रुखसत करती थी। इनमें एक औरत बहुत वृद्धा थी। जब वह गले मिलने को बढ़ी तो कोलेसरी ने झुककर उसके पैरों को अपने आँचल से छुआ और आँचल को माथे से लगा लिया। उसका यह विनम्रता और यह शिष्टाचार देखकर पंडित जी मारे खुशी के उछल पड़े और तीन-चार छलाँगें भरीं। उनसे अब जप्त न हो सका। दीवान-खाने से निकलकर आँगन में चले गए। कोलेसरी को इशारे से कमरे में बुलाया और गले से लगा लिया। वह कुशल मंगल पूछने लगी- ''देर क्यों की?'' कहने लगी- ''आज तुम न आते तो मैं खुद आती।'' मगर पंडित जी को इन बातों के सुनने की कहाँ फुर्सत! फिर गले लगा लिया और फिर लगाया। तबीयत न भरी, फिर प्यार।

कोलेसरी ने शरमाकर कहा- ''हुआ तो, अब क्या सब मोहब्बत आज ही खर्च कर डालोगे?''

पंडितजी- ''क्या कहूँ जी नहीं भरता। जितना प्यार करता हूँ उतना ही प्यार करने को जी चाहता है। तुम सचमुच देवी हो।''

पँडित जी को राज तो नहीं, लेकिन कोई इलाक़ा मिल गया होता, तो हर्गिज़ इतने खुश न होते। जब खूब प्यार कर चुके तो आँगन में खड़े होकर औरतों से बोले- ''बहनो, कोला बीमार नहीं थी। इन्होंने मुझे तुमसे मिलने-जुलने की निषेध की थी, मगर आज इन्होंने खुद बुलाया और बहनापे का नाता जोड़ा। मुझे इस वक्त जितनी खुशी है, इसका अंदाज़ नहीं हो सकता। इस खुशी में मैं एक-एक हजार रुपए से दस गाँवों में लेन-देन की कोठियाँ खोलूँगा और वहाँ तुम लोगों को विला सूद के रुपया दिया जाएगा। तुमको महाजनों से रुपया लेने में एक आना और दो आना रुपया सूद देना पड़ता है। इन कोठियों के खुलते ही तुम महाजनों के बंधन से छूट जाओगे और इन कोठियों का इंतजाम उन्हीं के छुर्द रहेगा, जिसने तुम्हें आज न्यौता दिया है।''

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