कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
इतना अपमान सह कर, जनता की निगाह में पतित हो कर, सारे शहर में बदनाम हो कर, नक्कू बन कर एक क्षण के लिए सिर में सरूर पैदा कर लिया तो क्या काम किया? कुवासना के लिए आत्मा को इतना नीचे गिराना क्या अच्छी बात है! यह चारों इस घड़ी मेरी निन्दा कर रहे होंगे, मुझे दुष्ट बता रहे होंगे, मुझे नीच समझ रहे होंगे। इन नीचों की दृष्टि में मैं नीचा हो गया। यह दुरवस्था नहीं सही जाती। आज इस वासना का अंत कर दूँगा, अपमान का अंत कर दूँगा।
एक क्षण में धड़ाके की आवाज हुई। अलगू चौंक कर उठा तो देखा कि मुंशी जी बरामदे में खड़े हैं और बोतल जमीन पर टूटी पड़ी है!
5. धर्मसंकट
‘पुरुषों और स्त्रियों में बड़ा अन्तर है, तुम लोगों का हृदय शीशे की तरह कठोर होता है और हमारा हृदय नरम, वह विरह की आँच नहीं सह सकता।’
‘शीशा ठेस लगते ही टूट जाता है। नरम वस्तुओं में लचक होती है।’
‘चलो, बातें न बनाओ। दिन-भर तुम्हारी राह देखूँ, रात-भर घड़ी की सुइयाँ, तब कहीं आपके दर्शन होते हैं।’
‘मैं तो सदैव तुम्हें अपने हृदय-मंदिर में छिपाए रखता हूँ।’
‘ठीक बतलाओ, कब आओगे?’
‘ग्यारह बजे, परंतु पिछला दरवाजा खुला रखना।’
‘उसे मेरे नयन समझो।’
‘अच्छा, तो अब विदा।’
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