कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
'और कौन सहारा है उसे बाबाजी?'
'ईश्वर कुछ नहीं है तू ही सब कुछ है?'
नेउर के मन में जैसे ज्ञान-उदय हो गया। तू इतना अभिमानी हो गया है। तेरा इतना दिमाग! मजदूरी करते करते जान जाती है और तू समझता है मैं ही बुढ़िया का सब कुछ हूं। प्रभु जो संसार का पालन करते हैं, तू उनके काम में दखल देने का दावा करता है। उसके सरल करते हैं। आस्था की ध्वनि सी उठकर उसे धिक्कारने लगी बोला- अज्ञानी हूं महाराज!
इससे ज्यादा वह और कुछ न कह सका। आँखों से दीन विषाद के आंसू गिरने लगे।
बाबाजी ने तेजस्विता से कहा- 'देखना चाहता है ईश्वर का चमत्कार! वह चाहे तो क्षण भर में तुझे लखपति कर दे। क्षण भर में तेरी सारी चिन्ताएं हर ले! मैं उसका एक तुच्छ भक्त हूं काकविष्टा; लेकिन मुझमें भी इतनी शक्ति है कि तुझे पारस बना दूँ। तू साफ दिल का, सच्चा ईमानदार आदमी है। मुझे तुझ पर दया आती है। मैंने इस गांव में सबको ध्यान से देखा। किसी में शक्ति नहीं विश्वास नहीं। तुझमे मैंने भक्त का हृदय पाया तेरे पास कुछ चांदी है?
नेउर को जान पड़ रहा था कि सामने स्वर्ग का द्वार है।
'दस पाँच रुपये होंगे महाराज?'
'कुछ चांदी के टूटे फूटे गहने नहीं हैं?'
'घरवाली के पास कुछ गहने हैं।'
'कल रात को जितनी चांदी मिल सके यहां ला और ईश्वर की प्रभुता देख। तेरे सामने मै चांदी की हांड़ी में रखकर इसी धूनी में रख दूंगा प्रात:काल आकर हांडी निकाल लेना; मगर इतना याद रखना कि उन अशर्फियों को अगर शराब पीने में, जुआ खेलने में या किसी दूसरे बुरे काम में खर्च किया तो कोढी हो जाएगा। अब जा सो रह। हां इतना और सुन ले इसकी चर्चा किसी से मत करना घरवालों से भी नहीं।'
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