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प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9782
आईएसबीएन :9781613015193

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग


जिस अवसर को वह तीन महीने से खोज रहा है उसे पाकर आज उसकी आत्मा कांप रही है। तृष्णा किसी वन्य जन्तु की भांति अपने संस्कार से आखेटप्रिय है लेकिन जंजीरों से बंधे-बंधे उसके नख गिर गये हैं और दांत कमजोर हो गये हैं।

उसने रोते हुए कहा- बेटी पेटारी उठा ले जाओ। मैं तुम्हारी परीक्षा कर रहा था। मनोरथ पूरा हो जायेगा।

चॉँद नदी के पार वृक्षों की गोद में विश्राम कर चुका था। नेउर धीरे से उठा और धसान में स्नान करके एक ओर चल दिया। भभूत और तिलक से उसे घृणा हो रही थी उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह घर से निकला ही कैसे? थोड़े उपहास के भय से! उसे अपने अन्दर एक विचित्र उल्लास का अनुभव हो रहा था मानो वह बेड़ियो से मुक्त हो गया हो कोई बहुत बड़ी विजय प्राप्त की हो।

आठवें दिन नेउर गांव पहुंच गया। लड़कों ने दौड़कर उछल कूदकर, उसकी लकड़ी उसके हाथ उसका स्वागत किया।

एक लड़के ने कहा काकी तो मर गयी दादा।

नेउर के पांव जैसे बंध गये मुंह के दोनों कोने नीचे झुक गये। दीनविषाद आंखों में चमक उठा कुछ बोला नहीं, कुछ पूछा भी नहीं। पलभर जैसे निस्संज्ञ खड़ा रहा फिर बडी तेजी से अपनी झोपड़ी की ओर चला। बालकवृन्द भी उसके पीछे दौड़े मगर उनकी शरारत और चंचलता भाग चली थी। झोपड़ी खुली पड़ी थी बुधिया की चारपाई जहां की तहां थी। उसकी चिलम और नारियल ज्यों के ज्यों धरे हुए थे। एक कोने में दो चार मिट्टी और पीतल के बरतन पड़े हुए थे। लड़के बाहर ही खड़े रह गये। झोपड़ी के अन्दर कैसे जाय वहां बुधिया बैठी है।

गांव में भगदड मच गयी। नेउर दादा आ गये। झोपड़ी के द्वार पर भीड़ लग गयी प्रश्नों का तांता बंध गया- तुम इतने दिनों कहां थे दादा? तुम्हारे जाने के बाद तीसरे ही दिन काकी चल बसीं रात दिन तुम्हें गालियां देतीं थी। मरते-मरते तुम्हें गरियाती ही रही। तीसरे दिन आये तो मरी पड़ी थीं। तुम इतने दिन कहां रहे?

नेउर ने कोई जवाब न दिया। केवल शून्य निराश करुण आहत नेत्रों से लोगों की ओर देखता रहा मानो उसकी वाणी हर ली गयी है। उस दिन से किसी ने उसे बोलते या रोते-हंसते नहीं देखा।

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