कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 22 प्रेमचन्द की कहानियाँ 22प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग
कुँवर साहब (क्रोध से)- ''क्या इतना कहने में भी आपको कोई उज्र है? '' दुर्गानाथ (द्विविधा में पड़े हुए) - ''जी यों तो मैंने आपका नमक खाया है। आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना मुझे उचित है, किंतु न्यायालय में मैंने गवाही कभी नहीं दी है। संभव है कि यह कार्य मुझसे न हो सके। अत: मुझे तो क्षमा ही कर दिया जाए।''
कुँवर साहब (शासन के ढंग से)- ''यह काम आपको करना पड़ेगा, इसमें हाँ-नहीं की आवश्यकता नहीं। आग आपने लगाई है, बुझावेगा कौन?''
दुर्गानाथ (शासन के साथ)- ''मैं झूठ कदापि नहीं बोल सकता, और न इस प्रकार शहादत दे सकता हूँ।''
कुँवर साहब (कोमल शब्दों में)- ''कृपानिधान, यह झूठ नहीं है। मैंने झूठ का व्यापार नहीं किया है। मैं यह नहीं कहता कि आप रुपए का वसूल होना अस्वीकार कर दीजिए। जब असामी मेरे ऋणी हैं, तो मुझे अधिकार है कि चाहे रुपया ऋण के मद में वसूल करूँ या मालगुजारी के मद में। यदि इतनी सी बात को आप झूठ समझते हैं तो आपकी ज़बरदस्ती है। अभी अपने संसार देखा नहीं। ऐसी सच्वाई के लिए संसार में स्थान नहीं। आप मेरे यहाँ नौकरी कर रहे हैं। इस सेवक-धर्म पर विचार कीजिए। आप शिक्षित और होनहार पुरुष हैं। अभी आपको संसार में बहुत दिन तक रहना है और बहुत काम करना है। अभी से आप यह धर्म और सत्यता धारण करेंगे तो अपने जीवन में आपको आपत्ति और निराशा के सिवा और कुछ प्राप्त न होगा। सत्यप्रियता अवश्य उत्तम वस्तु है, किंतु उसकी भी सीमा है। 'अति सर्वत्र वर्जयेत् !' अब अधिक सोच-विचार की अवश्यकता नहीं। यह अवसर ऐसा ही है।''
कुँवर साहब पुराने खुर्राट थे। इस फैंकनैत से युवक खिलाड़ी हार गया।
इन घटना के तीसरे दिन चाँदपार के असामियों पर बक़ाया लगान की नालिश हुई। समन आए। घर-घर उदासी छा गई। समन क्या थे, यम के दूत थे। देवी-देवताओं की मन्नतें होने लगीं। स्त्रियाँ अपने घरवालों को कोसने लगीं और पुरुष अपने भाग्य को। नियत तारीख के दिन गाँव के गँवार कंधे पर लोटा-डोर रखे और अँगोछे में चबेना बाँधे कचहरी को चले। सैकड़ों स्त्रियाँ और बालक रोते हुए उनके पीछे-पीछे जाते थे, मानो अब वे फिर उनसे न मिलेंगे।
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