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प्रेमचन्द की कहानियाँ 22

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9783
आईएसबीएन :9781613015209

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग


दुर्गानाथ- ''आपको इन वस्तुओं का अधिक तजरुबा होगा। मुझे तो अपनी रूखी रोटियाँ ही अधिक प्यारी हैं।''

न्यायाधीश- ''तो इन असामियों ने सब रुपया बेबाक कर दिया है?''

दुर्गानाथ- ''जी हाँ, इनके जिम्मे लगान की एक कौड़ी भी बाक़ी नहीं है।''

न्यायालय- ''रसीदें क्यों नहीं दीं?''

दुर्गानाथ- ''मेरे मालिक की आज्ञा।''

मजिस्ट्रेट ने नालिशें डिसमिस कर दीं। कुँवर साहब को ज्यों ही इस पराजय की खबर मिली, उनके कोप की मात्रा सीमा से बाहर हो गई। उन्होंने पंडित दुर्गानाथ को सैकड़ों कुवाक्य कहे- नमकहराम, विश्वासघाती, दुष्ट। ओह, मैंने उसका कितना आदर किया, किंतु कुत्ते की पूँछ कहीं सीधी हो सकती है! अंत में विश्वासघात कर ही गया। यह अच्छा हुआ कि पं. दुर्गानाथ मजिस्ट्रेट का फ़ैसला सुनते ही मुख्तार आम को कुंजियाँ और काग़ज़-पत्र सुपुर्द कर चलते हुए। नहीं तो उन्हें इस कार्य के फल में कुछ दिन हल्दी और गुड़ पीने की आवश्यकता पड़ती!

कुँवर साहब का लेन-देन विशेष अधिक था। चाँदपार बहुत बड़ा इलाका था। वहाँ के असामियों पर कई सौ रुपए बाकी थे। उन्हें विश्वास हो गया कि अब रुपया डूब जाएगा। वसूल होने की कोई आशा नहीं। इस पंडित ने असामियों को बिलकुल बिगाड़ दिया। अब उन्हें मेरा क्या डर। अपने कारिंदों और मंत्रियों से सम्मति ली। उन्होंने भी यही कहा- ''अब वसूल होने की कोई सूरत नहीं। कागजात न्यायालय में पेश किए जाएँ तो इनकम टैक्स लग जाएगा, किंतु रुपया वसूल होना कठिन है। उज़रदारियाँ होंगी। कहीं हिसाब में कोई भूल निकल आई तो रही सही साख भी जाती रहेगी और दूसरे इलाकों का रुपया भी मारा जाएगा।''

दूसरे दिन कुँवर साहब पूजापाठ से निश्चिंत हो अपनी चौपाल में बैठे, तो क्या देखते हैं कि चाँदपार के असामी झुंड-के-झुंड चले आ रहे हैं। उन्हें यह देखकर भय हुआ कि कहीं ये सब कुछ उपद्रव तो न करें, किंतु किसी के हाथ में एक छड़ी तक न थी। मलूका आगे-आगे आता था। उसने दूर ही से झुककर वंदना की। ठाकुर साहब को ऐसा आश्चर्य हुआ, मानो वे कोई स्वप्न देख रहे हों।

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