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प्रेमचन्द की कहानियाँ 22

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9783
आईएसबीएन :9781613015209

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग


ये असामी मेरे हाथ से निकल गए थे। मैं इनका क्या बिगाड़ सकता था? अवश्य यह पंडित सच्चा और धर्मात्मा पुरुष था। उसमें दूरदर्शिता न हो, काल-ज्ञान न हो, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि वह निस्पृह और सच्चा पुरुष था।

कैसी ही अच्छी वस्तु क्यों न हो, जब तक हमको उसकी आवश्यकता नहीं होती, तब तक हमारी दृष्टि में उसका गौरव नहीं होता। हरी दूब भी किसी समय अशर्फियों के मोल बिक जाती है। कुँवर साहब का काम एक निस्पृह मनुष्य के बिना रुक नहीं सकता था। अतएव पंडित के इस सर्वोत्तम कार्य की प्रशंसा किसी कवि की कविता से अधिक न हुई। चाँदपार के असामियों ने तो अपने मालिक को कभी किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाया, किंतु अन्य-इलाक़ों वाले असामी उसी पुराने ही ढंग से चलते थे। उन इलाक़ों में रगड़-रगड़ सदैव मची रहती थी। अदालत, मारपीट, डाँट-डपट सदा लगी रहती थी, किंतु ये सब तो जमींदारी के सिंगार हैं। बिना इन सब बातों के जमींदारी कैसी? क्या दिन-भर बैठे-बैठे वे मक्खियाँ मारें?

कुँवर साहब इसी प्रकार पुराने ढंग से अपना प्रबंध सँभालते जाते थे। कई वर्ष व्यतीत हो गए। कुँवर साहब का कारबार दिनों-दिन चमकता ही गया। यद्यपि उन्होंने पाँच लड़कियों के विवाह बड़ी धूम-धाम के साथ किए, परंतु तिस पर भी उसकी बढ़ती में किसी प्रकार की कमी न हुई। हाँ, शारीरिक शक्तियाँ अवश्य कुछ-कुछ ढीली पड़ती गईं। बड़ी भारी चिंता यही थी कि इस बड़ी संपत्ति और ऐश्वर्य को भोगनेवाला कोई उत्पन्न न हुआ। भानजे, भतीजे और नवासे इस रियासत पर दाँत लगाए हुए थे। कुँवर साहब का मन अब इन सांसारिक झगड़ों से फिरता जाता था। आखिर यह रोना-धोना किसके लिए? अब उनके जीवन-नियम में एक परिवर्तन हुआ। द्वार पर कभी-कभी साधु-संत धूनी रमाए हुए देख पड़ते। स्वयं भगवद्रीता और विष्णुपुराण पढ़ते। पारलौकिक चिंता अब नित्य रहने लगी। परमात्मा की कृपा! साधु-संतों के आशीर्वाद से बुढ़ापे में उनके एक लड़का पैदा हुआ। जीवन की आशाएँ सफल हुई। दुर्भाग्यवश पुत्र के जन्म ही से कुँवर साहब शारीरिक व्याधियों में ग्रस्त रहने लगे। सदा वैद्यों और डाँक्टरों का ताँता लगा रहता था, लेकिन दवाओं का उलटा प्रभाव पड़ता। ज्यों-त्यों करके उन्होंने ढाई वर्ष बिताए। अंत में उनकी शक्तियों ने जवाब दे दिया। उन्हें मालूम हो गया कि अब संसार से नाता टूट जाएगा। अब चिंता ने और धर दबाया- यह सारा माल असबाब, इतनी बड़ी संपत्ति किस पर छोड़ जाऊँ? मन की इच्छाएँ मन ही में रह गईं। लड़के का विवाह भी न देख सका। उसकी तोतली बातें सुनने का भी सौभाग्य न हुआ। हाय! अब इस कलेजे के टुकड़े को किसे सौपूँ जो इसे अपना पुत्र समझे। लड़के की माँ स्त्री जाति, न कुछ जाने न समझे। उससे कारबार सँभलना कठिन है। मुख्तार आम, गुमाश्ते, कारिंदे कितने हैं, परंतु सबके सब स्वार्थी, विश्वासघाती। एक भी ऐसा पुरुष नहीं जिस पर मेरा विश्वास जमे। कोर्ट आव वार्ड्स के सुपुर्द करूँ तो वहाँ भी ये ही सब आपत्तियाँ। कोई इधर दबाएगा, कोई उधर। अनाथ बालक को कौन पूछेगा? हाय, मैंने आदमी नहीं पहचाना! मुझे हीरा मिल गया था, मैंने उसे ठीकरा समझा! कैसा सच्चा, कैसा वीर, दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष था। यदि वह कहीं मिल जाये तो इस अनाथ बालक के दिन फिर जाएँ। उसके हृदय में करुणा है, दया है। वह एक अनाथ बालक पर तरस खाएगा। हाँ! क्या मुझे उसके दर्शन मिलेंगे? मैं उस देवता के चरण धोकर माथे पर चढ़ाता। आँसुओं से उसके चरण धोता। वही यदि हाथ लगाए, तो यही मेरी डूबती नाव पार लगे।

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