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प्रेमचन्द की कहानियाँ 22

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9783
आईएसबीएन :9781613015209

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग


ठाकुर साहब की दशा दिन-पर-दिन बिगड़ती गई। अब अंतकाल आ पहुँचा। उन्हें पंडित दुर्गादास की रट लगी हुई थी। बच्चे का मुँह देखते और कलेजे से एक आह निकल जाती। बार-बार पछताते और हाथ मलते। हाय! उस देवता को कहां पाऊँ? जो कोई उसके दर्शन करा दे, आधी जायदाद उस पर न्यौछावर कर दूँ- प्यारे पंडित! मेरे अपराध क्षमा करो। मैं अंधा था, अज्ञानी था। अब मेरी बाँह पकड़ो। मुझे डूबने से बचाओ। इस अनाथ बालक पर तरस खाओ।

हितार्थी और संबंधियों का समूह सामने खड़ा था। कुँवर साहब ने उनकी ओर अधखुली आँखों से देखा। सच्चा हितैषी कहीं देख न पड़ा। सबके चेहरे पर स्वार्थ की झलक थी। निराशा से आँखे मूँद लीं। उनकी स्त्री फूट-फूटकर रो रही थी। निदान उसे लज्जा त्यागनी पड़ी। वह रोती हुई पास जाकर बोली- ''प्राणनाथ, मुझे और इस असहाय बालक को किस पर छोड़े जाते हो? ''

कुँवर साहब ने धीरे से कहा- ''पंडित दुर्गादास पर। वे जल्द आएँगे। उनसे कह देना कि मैंने सब कुछ उनको भेंट कर दिया। यह अंतिम वसीयत है।''

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7. पत्नी से पति

मिस्टर सेठ को सभी हिन्दुसतानी चीजों से नफरत थी और उनकी सुन्दरी पत्नी गोदावरी को सभी विदेशी चीजों से चिढ़! मगर धैर्य ओर विनय भारत की देवियों का आभूषण है गोदावरी दिल पर हजार जब्र करके पति की लायी हुई विदेशी चीजों का व्यवहार करती थी, हालांकि भीतर ही भीतर उसका हदय अपनी परवशता पर रोता था। वह जिस वक्त अपने छज्जे पर खड़ी होकर सड़क पर निगाह दौड़ाती ओर कितनी ही महिलाओं को खद्दर की साड़ियों पहने गर्व से सिर उठाते चलते देख्रती, तो उसके भीतर की वेदना एक ठंडी आह बनकर निकल जाती थी। उसे ऐसा मालूम होता था कि मुझसे ज्यादा बदनसीब औरत संसार में नहीं हैं मैं अपने स्वदेश वासियों की इतनी भी सेवा नहीं कर सकती? शाम को मिस्टर सेठ के आग्रह करने पर वह कहीं मनोरंजन या सैर के लिए जाती, तो विदेशी कपड़े पहने हुए निकलते शर्म से उसकी गर्दन झुक जाती थी। वह पत्रों मे महिलाओं के जोश-भरे व्याख्यान पढ़ती तो उसकी आंखें जगमगा उठतीं, थोड़ी देर के लिए वह भूल जाती कि मैं यहां बन्धनों मे जकड़ी ह़ई हूं।

होली का दिन था, आठ बजे रात का समय। स्वदेश के नाम पर बिके हुए अनुरागियों का जुलूस आकर मिस्टर सेठ के मकान के सामने रुका ओर उसी चौड़े मैदान में विलायती कपड़ों ही होलियां लगाने की तैयारियां होने ल्रगीं। गोदावरी अपने कमरे में खिड़की पर खड़ी यह समारोह देखती थी ओर दिल मसोसकर रह जाती थी- एक वह हैं, जो यों खुश-खुश, आजादी के नशे-मतवाले, गर्व से सिर उठाये होली लगा रहे हैं, और एक मैं हूं कि पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह फड़फड़ा रही हूं। इन तीलियों को कैसे तोड़ दूं?

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