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प्रेमचन्द की कहानियाँ 24

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9785
आईएसबीएन :9781613015223

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग


जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया। फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दँदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला। उसने जोर से आवाज लगायी- हिलो! हिलो! हिलो! जबरा फिर भूँक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार हैं। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं। हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा।

जबरा अपना गला फाड़े डालता था, नील गायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था। उसी राख के पस गर्म जमीन पर वही चादर ओढ़ कर सो गया। सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैली गई थी और मुन्नी कह रही थी- क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया।

हल्कू ने उठकर कहा- क्या तू खेत से होकर आ रही है?

मुन्नी बोली- हाँ, सारे खेत का सत्यनाश हो गया। भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या हुआ?

हल्कू ने बहाना किया- मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दरद हुआ, ऐसा दरद हुआ कि मैं नहीं जानता हूँ! दोनों फिर खेत के डॉँड पर आये। देखा सारा खेत रौदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों। दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था। मुन्नी ने चिंतित होकर कहा- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी। हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा- रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।

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4. पैपुजी

सिद्धान्त का सबसे बड़ा दुश्मन है मुरौवत। कठिनाइयों, बाधाओं, प्रलोभनों का सामना आप कर सकते हैं दृढ़ संकल्प और आत्मबल से। लेकिन एक दिली दोस्त से बेमुरौबती तो नहीं की जाती, सिद्धान्त रहे या जाय। कई साल पहले मैंने जनेऊ हाथ में लेकर प्रतिज्ञा की थी कि अब कभी किसी की बरात में न जाऊंगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। ऐसी विकट प्रतिज्ञा करने की जरूरत क्यों पड़ी, इसकी कथा लंबी है और आज भी उसे याद करके मेरी प्रतिज्ञा को जीवन मिल जाता है।

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