कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 24 प्रेमचन्द की कहानियाँ 24प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग
किंतु जब महात्मा दुर्लभदास ने स्पष्ट कर कह दिया कि उनके संकट का निवारण राजा के सिवा और किसी से न होगा, तब लोग विवश होकर राज्यभवन के सामने, मैदान में जमा हो गए और जान पर खेल कर उच्च स्वर से दुहाई मचाने लगे। द्वारपालों तथा सैनिकों ने उन्हें वहीं से बलात् हटाना चाहा, डाँटा, मारने की धमकी दी; पर इस समय लोग प्राण-समर्पण करने पर उद्यत थे। वे किसी भाँति वहाँ से न टले। उनका आर्त्तनाद प्रति क्षण बढ़ता जाता था, यहाँ तक कि राजा के प्रमोदोल्लास में विष्य हो गया। उन्होंने क्रुद्ध होकर द्वारपालों से पूछा- ''ये कौन हैं जो शोर मचा रहे हैं?
एक द्वारपाल ने डरते-डरते कहा- ''दीन-बंधु नगर-निवासियों का असंख्य समूह राज्य-भवन के सामने खड़ा है और किसी प्रकार नहीं हटता।''
राजा- ''वे लोग क्या चाहते हैं?''
एक मंत्री ने उत्तर दिया- ''धर्मावतार, कुछ मालूम नहीं कि उनकी क्या इच्छा है। वे कहते हैं कि वे महाराज के दर्शन करेंगे।''
राजा- ''आज उन्हें मेरे दर्शन का शौक क्यों हुआ है?''
मंत्री- ''दीनानाथ, मैंने बहुत समझाया; किंतु वे कहते हैं कि दर्शन किए बिना वे कदापि वापिस न जाएँगे।''
राजा- ''तो उन्हें गोली मार कर भगा दो। उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि मैं उनका राजा हूँ मेरे राजा वे नहीं हैं। वे मेरे आज्ञाकारी हैं, मैं उनका आज्ञाकारी नहीं हूँ?
मंत्री- ''पृथ्वीनाथ, मैं सब कुछ करके हार गया। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि गोली भी चलाई जाएगी, तो वे द्वार पर से न हटेंगे, चाहे वहीं भले ही मर जाएँ।''
राजा ने कुछ सोचकर कहा- ''तो अवश्य उन पर कोई संकट है। लाओ, तामजान हाजिर करो।''
एक क्षण में तामजान लाया गया। राजा साहब एक पग भी पैरों से न चल सकते थे। उनके पैर केवल अंगों की पूर्त्ति के निमित्त थे। तामजान पर बैठकर वे जनता के सम्मुख आकर उपस्थित हुए।
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