कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 24 प्रेमचन्द की कहानियाँ 24प्रेमचंद
|
9 पाठकों को प्रिय 289 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग
उन्हें देखते ही असंख्य कंठों से ''जय! जय!'' की ध्वनि निकल पड़ी। यद्यपि समस्त प्रजा राजा से असंतुष्ट थी; पर उसके इस प्रजा-वात्सल्य को देखकर लोग मुग्ध हो गए और फिर वह इस समय राजा से वर मांगने आई थी; अतएव यह अवसर उदासीन होने का न था। परंतु उनके विह्वल होने का मुख्य कारण यह था कि राजा के दर्शन पाते ही जनता में राजभक्ति की एक लहर-सी दौड़ गई, जिसने असंतोष और अश्रद्धा को तृण के समान बहा दिया।
''जय-जय'' की ध्वनि शांत हुई। तदनंतर लोगों ने विनय की, कि ''महाराज, हम घोर संकट में पड़े हुए हैं। आप हमारे धर्मपिता हैं। यदि हमें आप न बचाएँगे, तो हम सब अन्न-जल के बिना तड़प-तड़पकर मर जाएँगे।''
राजा ने आश्चर्य से पूछा- ''तुम्हारे ऊपर कौन-सा संकट है?''
प्रजा- ''दीनानाथ, साल-भर से एक बूँद जल नहीं बरसा। सारे देश में हाहाकार मचा हुआ है। तालाबों में पानी नहीं है, कुएँ सूख गए हैं, यहाँ तक कि नदियों की धाराएँ भी बंद हो गई हैं। आप हमारे स्वामी हैं, आप ही की कृपा-दृष्टि होने पर हमारा कल्याण हो सकता है।''
राजा- ''मुझे तो ये समाचार आज ज्ञात हुए। क्या वास्तव में वर्षा नहीं हुई?''
प्रजागण- ''दीनानाथ, आप स्वयं चलकर हमारी दशा देख लें। अन्न-जल के बिना हमारी दशा बहुत बुरी हो रही है।''
राजा- ''क्या तुम लोगों ने देवताओं की पूजा नहीं की और यज्ञ नहीं किए?''
प्रजागण- ''पृथ्वीनाथ, हम सब कुछ करके हार गए।''
राजा- ''तो महात्माओं और सिद्ध पुरुषों की शरण क्यों नहीं गए? महात्मा दुर्लभदाम को क्यों नहीं घेरा? वे ईश्वर के भक्त हैं, वे चाहें तो क्षणमात्र में जल-थल एक कर दें।''
प्रजा- ''धर्मराज, महात्मा दुर्लभदास ने बहुत जप-तप किया, सहस्त्रों सिद्ध पुरुषों को एकत्रित किया; पर किसी से कुछ न हो सका।''
|