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प्रेमचन्द की कहानियाँ 24

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9785
आईएसबीएन :9781613015223

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग


नगरवासियों ने यह वृत्तांत सुना। वे दौड़ते हुए उस स्थान पर आकर जमा हो गए। ऐसा कोई हृदय न था जो राजा की ऐसी नैराश्यपूर्ण दृढ़ता पर द्रवित न हो गया हो। लोगों ने बहुत दीनता से कहा- ''स्वामी, आप इस कालिमा को धो डालिए, इससे हमारे हृदयों पर चोट लगती है।''

राजा ने सुदृढ़ भाव से उत्तर दिया- ''भाइयो, यह कालिमा अब ईश्वर की कृपा और दया के जल से धुलेगी, अन्यथा नहीं।''

एक घंटा बीत गया। राजा का मुखमंडल काले तवे के सदृश तप रहा था। उनकी आँखों से अग्नि की चिनगारियाँ निकलने लगीं। चोटी का पसीना एड़ी तक जा रहा था। उनका पद-स्थल भींग गया। मस्तक गरम पानी के सदृश खौल रहा था। प्रति क्षण लोगों को भय होता था कि कहीं वे मूर्च्छित होकर गिर न पड़े। लोग अत्यंत विनीत भाव से कह रहे थे- ''दीनबंधु, आप अपने सुकोमल शरीर को अब कष्ट न दें। हमें बिना अन्न-जल के मर जाना स्वीकार है; पर आपकी यह दशा देखी नहीं जाती।'' किंतु राजा के मुखमंडल से अटल प्रतिज्ञा का दिव्य प्रकाश फैल रहा था। उनकी, कर्म तथा ज्ञान की, समस्त इन्द्रियां शून्यावस्था में थीं। हाँ, शरीर का एक-एक रोम स्पष्ट शब्दों में कह रहा था कि- ''परम पिता, मेरी प्रजा दुःखी है, उसे उबारिए। मैं पापी हूँ कुकर्मी हूँ दुराचारी हूँ दुर्व्यसनी हूँ मुझे आपसे कुछ प्रार्थना करने में भी लज्जा होती है; पर मेरे कुकर्मों का दंड मुझे मिलना चाहिए, मेरी प्रजा निरपराध है, उस पर दया कीजिए। मैं कठोर-से-कठोर यातना के लिए आपके सम्मुख सिर झुकाए खड़ा हूँ। यदि आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार न करेंगे, तो मैं यहीं खड़े-खड़े प्राण दे दूँगा; पर प्रजा को अपना मुँह न दिखाऊँगा। मैं आपका दासानुदास हूँ आपसे अपना दुःख कहने में कोई अपमान नहीं है; किंतु जो प्रजा मुझे अपना स्वामी समझती है उसके सामने मैं कौन मुँह लेकर जाऊँ?''

दो घंटे बीत गए। सूर्य किरणें और भी प्रचंड हुईं। भूमि और भी अधिक तप्त हो गई। सारी प्रजा आकाश की ओर टकटकी लगाए देख रही थी; किंतु बादल का कहीं नाम न था।

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