कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 24 प्रेमचन्द की कहानियाँ 24प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग
सारा नगर यह विलक्षण दृश्य देखने के लिए उमड़ा चला आता था। प्रत्येक हृदय राजा के प्रति श्रद्धा तथा भक्ति से परिपूर्ण हो रहा था। ऐसा राज्यानुराग कभी देखने में न आया था। सहस्रों नेत्रों से अश्रु-धारा बह रही थी, स्त्रियाँ व्याकुल हो-होकर विलाप कर रही थीं। राजभवन से क्रंदन-ध्वनि निकलकर सबके हृदयों को विदीर्ण किए देती थी। तीन बज गए थे; पर सूर्य तेज लेशमात्र भी कम न हुआ था। राजा पृथ्वीपतिसिंह की आँखें फैल गई थीं, माथा सिकुड़ गया था, शरीर को सँभालने और चित्त को बलात् स्थिर रखने के कारण ओंठ पुथकली के समान बंद हो गए थे। ऐसा ज्ञात होता था कि उनके शरीर में रक्त-संचार नहीं है, प्राण नहीं हैं, केवल नैराश्य-मय दृढ़ता का बल उन्हें पैरों पर खड़ा रखे हुए है। लोगों को प्रतिक्षण भय होता था कि राजा अब भूमि पर गिरे, अब गिरे। बहुत से प्राणियों को तो विश्वास था कि यद्यपि राजा खड़े हैं; पर यह केवल शवमात्र हैं। जिस ताप और उष्णता को घर में बैठकर सहन करना दुस्तर था, जिस धूप में चील अंडे छोड़ती थी और कीट-पतंग धरती से निकल-निकलकर तड़पते और मर जाते थे, जिस अग्नि-कुंड में किसी जीवधारी का एक क्षण खड़ा रहना असंभव था उस दहकती हुई ज्वाला में राजा जैसा सुकोमल, सुखोवित मनुष्य इतनी देर तक क्योंकर खड़ा रह सकता है?
सहसा जयजयकार की ध्वनि से सारा आकाश-मंडल गूँज उठा, मानो कोई भयंकर भूकंप आ गया हो, अथवा दो पर्वत टकरा गए हों। लाखों मनुष्य आनंद से विहृल होकर उछलने-कूदने लगे। सारी जनता में एक हलचल-सी मच गई। अगणित उँगलियाँ पूर्व दिशा की ओर उठ गईं। एक छोटा-सा बादल का टुकड़ा क्षितिज पर उसी तरह दिखाई दे रहा था, जैसे अँधकार में कोई दीपक टिमटिमा रहा हो।
एक क्षण में क़िले से तोपें छूटने लगीं। स्त्रियाँ मंगलाचार गाने लगीं और भवन-द्वार पर खड़ी होकर महारानी यशोदा ने दरिद्रों को अन्न-वस्त्र देना आरंभ किया, किंतु प्रजा शांत हो गई थी। आनंद की पहिली लहर ने उन्हें अधीर कर दिया था।
अपने उल्लास को हृदय में छिपाकर अब वह बादल के टुकड़े की ओर आशा और भय के साथ ताक रही थी।
देखते-देखते बादल के उस छोटे से टुकड़े ने विराट रूप धारण कर लिया। जैसे बारूद के ढेर में आग लगते ही क्षणमात्र में चारों ओर धुआँ फैल जाता है, उसी प्रकार वह बीज-रूपी मेघ समस्त आकाश में छा गया। बिजली चमकने लगी और पवन के झकोरे चलने लगे। अकस्मात् एक कर्णबेधी मेघ-ध्वनि सुनाई पड़ी। यह भीषण नाद इस समय लोगों को स्वर्गीय गान से भी अधिक प्रिय मालूम हुआ। इस नाद को सुनने के लिए वे कितने ही दिनों से लालायित हो रहे थे।
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