कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 24 प्रेमचन्द की कहानियाँ 24प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग
‘मुझे तो ईश्वरदास कहते हैं।
माया का कलेजा धक् से हो गया। जरूर यह वही खूनी है, इसकी शक्ल-सूरत भी वही है जो उसे बतलायी गयी थी। उसने डरते-डरते पूछा- आपका मकान किस मुहल्ले में है?
‘..... में रहता हूँ।
माया का दिल बैठ गया। उसने खिड़की से सिर बाहर निकालकर एक लम्बी सांस ली। हाय! खूनी मिला भी तो इस हालत में जब वह उसके एहसान के बोझ से दबी हुई है! क्या उस आदमी को वह खंजर का निशाना बना सकती है, जिसने बगैर किसी परिचय के सिर्फ हमदर्दी के जोश में ऐसे गाढ़े वक्त में उसकी मदद की? जान पर खेल गया?
वह एक अजीब उलझन में पड़ गयी। उसने उसके चेहरे की तरफ देखा, शराफत झलक रही थी। ऐसा आदमी खून कर सकता है, इसमें उसे सन्देह था। ईश्वरदास ने पूछा- आप लाहौर से आ रही हैं न? शाहजहाँपुर में कहां जाइएगा?
‘अभी तो कहीं धर्मशाला में ठहरूंगी, मकान का इन्तजाम करना है।’
ईश्वरदास ने ताज्जुब से पूछा- तो वहां आप किसी दोस्त या रिश्तेदार के यहाँ नहीं जा रही हैं?
‘कोई न कोई मिल ही जाएगा।’
‘यों आपका असली मकान कहां है?’
‘असली मकान पहले लखनऊ था, अब कहीं नहीं है। मैं बेवा हूँ।’
ईश्वर दास ने शाहजहाँपुर में माया के लिए एक अच्छा मकान तय कर दिया। एक नौकर भी रख दिया। दिन में कई बार हाल-चाल पूछने आता। माया कितना ही चाहती थी कि उसके एहसान न ले, उससे घनिष्ठता न पैदा करे, मगर वह इतना नेक, इतना बामुरौवत और शरीफ था कि माया मजबूर हो जाती थी। एक दिन वह कई गमले और फर्नीचर लेकर आया। कई खूबसूरत तसवीरें भी थी। माया ने त्यौरियां चढ़ाकर कहा- मुझे साज-सामान की बिलकुल जरूरत नहीं, आप नाहक तकलीफ करते हैं।
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