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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


बंटी आज उस अभागे-से गधे को देखकर ऐसी प्रसन्न हुई, मानो अपना भाई नैहर से बतासों की पोटली लिये थका-माँदा चला आता हो। उसने जाकर उसकी गर्दन सहलायी और उसके थूथन को अपने मुँह से लगा लिया। वह उसे फूटी आँखों न भाता था; पर आज उससे उसे कितनी आत्मीयता हो गयी थी। वह दोनों अंगारे-सी आँखें उसे घूर रही थीं। वह सिहर उठी। उसने फिर सोचा क्या किसी तरह न छोड़ेगा? वह रोती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ेगी। क्या तब भी न छोड़ेगा? इन आँखों की वह कितनी सराहना किया करता था। इनमें आँसू बहते देखकर भी उसे दया न आयेगी? बंटी ने चुक्कड़ में शराब उँड़ेलकर पी ली और छींके से फुलौड़ियाँ उतारकर खायीं। जब उसे मरना ही है, तो साध क्यों रह जाय। वह दोनों अंगारे-सी आँखें उसके सामने चमक रही थीं। दूसरा चुक्कड़ भरा और पी गयी। जहरीला ठर्रा, जिसे दोपहार की गर्मी ने और भी घातक बना दिया था, देखते-देखते उसके मस्तिष्क को खौलाने लगा। बोतल आधी हो गयी थी।

उसने सोचा भोंदू कहेगा, तूने इतनी दारू क्यों पी, तो वह क्या कहेगी। कह देगी हाँ, पी; क्यों न पीये, इसी के लिए तो वह सबकुछ हुआ। वह एक बूँद भी न छोड़ेगी। जो होना हो, हो। भोंदू उसे मार नहीं सकता। इतना निर्दयी नहीं है, इतना कायर नहीं है। उसने फिर चुक्कड़ भरा और पी गयी। पाँच वर्ष के वैवाहिक जीवन की अतीत स्मृतियाँ उसकी आँखों के सामने खिंच गयीं। सैकड़ों ही बार दोनों में गृह-युद्ध हुए थे। आज बंटी को हर बार अपनी ज्यादती मालूम हो रही थी। बेचारा जो कुछ कमाता है, उसी के हाथों पर रख देता है। अपने लिए कभी एक पैसे की तम्बाकू भी लेता है तो पैसा उसी से माँगता है। भोर से साँझ तक बन-बन फिरा ही तो करता है! जो काम उससे नहीं होता, वह कैसे करे।

यकायक एक कांस्टेबल ने आकर कहा, 'अरी बंटी, कहाँ है? चल देख, भोंदुआ का हाल-बे-हाल हो रहा है। अभी तक तो चुपचाप बैठा था। फिर न-जाने क्या जी में आया कि एक पत्थर पर अपना सिर पटक दिया। लहू बह रहा है। अगर हम लोग दौड़कर पकड़ न लेते, तो जान ही दे दी थी।'

एक महीना बीत गया था। संध्या का समय था। काली-काली घटाएं छाई थीं और मूसलाधार वर्षा हो रही थी। भोंदू की सिरकी अब भी निर्जन स्थान पर खड़ी थी, भोंदू खटोली पर पड़ा हुआ था। उसका चेहरा पीला पड़ गया था और देह जैसे सूख गयी थी। वह सशंक आँखों से वर्षा की ओर देखता है, चाहता है उठकर बाहर देखूँ; पर उठा नहीं जाता। बंटी सिर पर घास का एक बोझ लिये पानी में लथ-पथ आती दिखलायी दी। वही गुलाबी साड़ी है, पर तार-तार, किन्तु उसका चेहरा प्रसन्न है। विषाद और ग्लानि के बदले आँखों से अनुराग टपक रहा है। गति में वह चपलता, अंगों में वह सजीवता है, जो चित्त की शान्ति का चिह्न है। भोंदू ने क्षीण स्वर में कहा, 'तू इतना भीग रही है, कहीं बीमार पड़ गयी, तो कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी न रहेगा। मैं कहता हूँ, तू क्यों इतना मरती है। दो गट्ठे तो बेच चुकी थी। तीसरा गट्ठा लाने का काम क्या था। यह हाँड़ी में क्या लाई है? '

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