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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


बंटी ने हाँड़ी को छिपाते हुए कहा, 'क़ुछ तो नहीं है, कैसी हाँड़ी? '

भोंदू जोर लगाकर खटोली से उठा, अंचल के नीचे छिपी हुई हाँड़ी खोल दी और उसके भीतर नजर डालकर बोला, 'अभी लौटा, नहीं तो मैं हाँड़ी फोड़ दूँगा।'

बंटी ने धोती से पानी निचोड़ते हुए कहा, 'ज़रा आईने में सूरत देखो। घी-दूध कुछ न मिलेगा, तो कैसे उठोगे? क़ि सदा खाट पर सोने का ही विचार है? '

भोंदू ने खटोली पर लेटते हुए कहा, 'अपने लिए तो एक साड़ी नहीं लायी। कितना कहके हार गया। मेरे लिए घी और दूध सब चाहिए! मैं घी न खाऊँगा।'

बंटी ने मुस्कराकर कहा, 'इसीलिए तो घी खिलाती हूँ कि तुम जल्दी से काम-धन्धा करने लगो और मेरे लिए साड़ी लाओ।'

भोंदू ने मुस्कराकर कहा, 'तो आज जाकर कहीं सेंध मारूँ? '

बंटी ने उसके गाल पर एक ठोकर देकर कहा, 'पहले मेरा गला काट देना, तब जाना।'

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3. प्रेम का स्वप्न

मनुष्य का हृदय अभिलाषाओं का क्रीड़ास्थल और कामनाओं का आवास है। कोई समय वह था जब कि माधवी माता के अंक में खेलती थी। उस समय हृदय अभिलाषा और चेष्टाहीन था। किन्तु जब मिट्टी के घरौंदे बनाने लगी उस समय मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं भी अपनी गुड़िया का विवाह करुँगी। सब लड़कियां अपनी गुड़ियां ब्याह रही हैं, क्या मेरी गुड़िया कुँवारी रहेगी? मैं अपनी गुड़िया के लिए गहने बनवाऊँगी, उसे वस्त्र पहनाऊँगी, उसका विवाह रचाऊँगी। इस इच्छा ने उसे कई मास तक रुलाया। पर गुड़ियों के भाग्य में विवाह न बदा था। एक दिन मेघ घिर आये और मूसलाधार पानी बरसा। घरौंदा वृष्टि में बह गया और गुड़ियों के विवाह की अभिलाषा अपूर्ण हो रह गयी। कुछ काल और बीता। वह माता के संग विरजन के यहाँ आने-जाने लगी। उसकी मीठी-मीठी बातें सुनती और प्रसन्न होती, उसके थाल में खाती और उसकी गोद में सोती। उस समय भी उसके हृदय में यह इच्छा थी कि मेरा भवन परम सुन्दर होता, उसमें चांदी के किवाड़ लगे होते, भूमि ऐसी स्वच्छ होती कि मक्खी बैठे और फिसल जाए! मैं विरजन को अपने घर ले जाती, वहां अच्छे-अच्छे पकवान बनाती और खिलाती, उत्तम पलंग पर सुलाती और भली-भॉँति उसकी सेवा करती। यह इच्छा वर्षों तक हृदय में चुटकियाँ लेती रही। किन्तु उसी घरौंदे की भाँति यह घर भी ढह गया और आशाएँ निराशा में परिवर्तित हो गयी।

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