कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 27 प्रेमचन्द की कहानियाँ 27प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग
इन शब्दों ने दिलों पर जादू का काम किया। लोग स्वामिभक्ति के आवेश से मस्त हो-होकर ठाकुर साहब के पैरों से लिपट गये और कहने लगे- हम आपके, कदमों से जीते-जी जुदा न होंगे। आपका-सा कद्रदान और रिआया-परवर बुजुर्ग हम कहाँ पायेंगे। वीरों की भक्ति और सहानुभूति, वफादारी और एहसान का एक बड़ा दर्दनाक और असर पैदा करने वाला दृश्य आँखों के सामने पेश हो गया। लेकिन ठाकुर साहब अपने उदार निश्चय पर दृढ़ रहे और गो पचास साल से ज्यादा गुजर गये हैं। लेकिन उन्हीं बंजारों के वारिस अभी तक मौजा साहषगंज के माफीदार हैं। औरतें अभी तक ठाकुर प्रद्युम्न सिंह की पूजा और मन्नतें करती हैं और गो अब इस मौजे के कई नौजवान दौलत और हुकूमत की बुलंदी पर पहुँच गये हैं लेकिन गूढ़े और अक्खड़ हरदास के नाम पर अब भी गर्व करते हैं। और भादों सुदी एकादशी के दिन अभी उसी मुबारक फतेह की यादगार में जश्न मनाये जाते हैं।
2. बाँसुरी
रात ज्यादा आ गई थी। अष्टमी का चाँद खाबगा में जा चुका था। दुपहर के कँवल की तरह स्वच्छ एवं उज्ज्वल आसमान में सितारे खिले हुए थे। किसी खेत के रखवाले की बाँसुरी की आवाज़, जिसे दूरी ने तासीर, सन्नाटे ने सुरीलापन और अँधकार ने रूहानियत की सुंदरता, मनोज्ञता बनाई थी, यूँ कानों में आ रही थी, गोया कोई मुबारक रूह नदी के किनारे बैठी हुई पानी की लहरों को या दूसरे किनारे के खामोश व पुरकशिश दरख्तों को अपनी जिन्दगी की दास्ताने-गम सुना रही हो।
(यह उर्दू कहानी मूल उर्दू कहानी 'तिरिया चरितर' (ज़माना - जनवरी, 1913) का एक अवतरण मात्र है जिसे प्रेमचंद ने एक स्वतंत्र कहानी के रूप में प्रकाशित करा दिया, अमृतराय ने गुप्तधन में 'त्रिया-चरित्र' प्रस्तुत करते हुए इस अंश को बदलकर इस प्रकार प्रस्तुत किया ''रात ज्यादा हो गई थी अष्टमी का चाँद सोने जा चुका था दोपहर के कमल की तरह साफ़ आसमान में सितारे खिले हुए थे। किसी खेत के रखवाले की बाँसुरी की आवाज जिसे दूरी ने तासीर, सन्नाटे ने सुरीलापन और अँधेरे ने आत्मिकता का आकर्षण दे दिया था, कानों में आ रही थी कि जैसे कोई पवित्र आत्मा नदी के किनारे बैठी हुई पानी की लहरों से या दूसरे किनारे के खामोश और अपनी तरफ़ खीचने वाले पेड़ों से अपनी ज़िन्दगी की गम की कहानी सुना रही हो।)
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