कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 27 प्रेमचन्द की कहानियाँ 27प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग
3. बाबाजी का भोग
रामधन अहीर के द्वार पर एक साधु आकर बोला- बच्चा तेरा कल्याण हो, कुछ साधु पर श्रद्धा कर।
रामधन ने जाकर स्त्री से कहा- साधु द्वार पर आये हैं, उन्हें कुछ दे दे।
स्त्री बरतन माँज रही थी, और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज भोजन क्या बनेगा, घर में अनाज का एक दाना भी न था। चैत का महीना था। किंतु यहाँ दोपहर ही को अंधकार छा गया था। उपज सारी-की-सारी खलिहान से उठ गयी। आधी महाजन ने ले ली, आधी जमींदार के प्यादों ने वसूल की। भूसा बेचा तो बैल के व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी-सी गाँठ अपने हिस्से में आयी। उसी को पीट-पीटकर एक मन-भर दाना निकाला था। किसी तरह चैत का महीना पार हुआ। अब आगे क्या होगा। क्या बैल खायेंगे, क्या घर के प्राणी खायेंगे, यह ईश्वर ही जाने ! पर द्वार पर साधु आ गया है, उसे निराश कैसे लौटायें, अपने दिल में क्या कहेगा।
स्त्री ने कहा- क्या दे दूँ, कुछ तो रहा नहीं?
रामधन- जा, देख तो मटके में, कुछ आटा-वाटा मिल जाय तो ले आ।
स्त्री ने कहा- मटके झाड़-पोंछकर तो कल ही चूल्हा जला था। क्या उसमें बरक्कत होगी?
रामधन- तो मुझसे तो यह न कहा जायगा कि बाबा घर में कुछ नहीं है। किसी के घर से माँग ला।
स्त्री- जिससे लिया उसे देने की नौबत नहीं आयी, अब और किस मुँह से माँगूँ?
रामधन- देवताओं के लिए कुछ अँगौवा निकाला है न, वही ला, दे आऊँ !
स्त्री- देवताओं की पूजा कहाँ से होगी?
रामधन- देवता माँगने तो नहीं आते? समाई होगी करना, न समाई हो न करना।
स्त्री- अरे तो कुछ अँगौवा भी पंसेरी दो पंसेरी है? बहुत होगा तो आध सेर। इसके बाद क्या फिर कोई साधु न आयेगा। उसे तो जवाब देना ही पड़ेगा।
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