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प्रेमचन्द की कहानियाँ 28

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9789
आईएसबीएन :9781613015261

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग


मुझे तो किसी को सुपाड़ी काटते देखकर उतना ही आश्चर्य होता है जितना किसी को तलवार की धार पर नाचते देखकर। और मान लो यह मामला भी किसी तरह हल हो जाय, तो आखिरी मंजिल कौन फतह करे। कत्था और चूना बराबर लगाना क्या कोई आसान काम है? कम से कम मुझे तो उसका ढंग नहीं आता। जब इस मामले में वे लोग रोज गलतियां करते हैं तो इस कला में दक्ष हैं तो मैं भला किस खेत की मूली हूं। तमोली ने अगर चूना ज्यादा कर दिया या कत्था और ले लिया, उस पर उसे एक डांट भी बतायी, आंसू पूंछ गये। मुसीबत का सामना तो उस वक्त हो होता है, जब किसी दोस्त के घर जायँ। पान अन्दर से आयी तो इसके सिवाय कि जान-बूझकर मक्खी निगलें, समझ-बूझकर जहर का घूंट गले से नीचे उतारें और चारा ही क्या है। शिकायत नहीं कर सकते, सभ्यता बाधक होती है। कभी-कभी पान मुंह में डालते ही ऐसा मालूम होता है, कि जीभ पर कोई चिनगारी पड़ गयी, गले से लेकर छाती तक किसी ने पारा गरम करके उड़ेल दिया, मगर घुटकर रह जाना पड़ता है। अन्दाजे में इस हद तक गलती हो जाय यह तो समझ में आने वाली बात नहीं। मैं लाख अनाड़ी हूं लेकिन कभी इतना ज्यादा चूना नहीं डालता,हां दो-चार छाले पड़ जाते हैं। तो मैं समझता हूं, यही अन्त:पुर के कोप की अभिव्यक्ति है। आखिर वह आपकी ज्यादतियों का प्रोटेस्ट क्यों कर करें। खामोश बायकाट से आप राजी नहीं होते, दूसरा कोई हथियार उनके हाथ में है नहीं। भंवों की कमान और बरौनियों का नेजा और मुस्कराहट का तीर उस वक्त बिलकुल कोई असर नहीं करते जब आप आंखें लाल किये, आस्तीनें समेटे इसलिए आसमान सर पर उठा लेते हैं कि नाश्ता और पहले क्यों नहीं तैयार हुआ, तब सालन में नमक और पान में चूना ज्यादा कर देने के सिवाय बदला लेने का उनके हाथ में और क्या साधन रह जाता है!

खैर, तीन-चार दिन के बाद एक दिन मैं सुबह के वक्त तम्बोलिन की दुकान पर गया तो उसने मेरी फरमाइश पूरी करने में ज्यादा मुस्तैदी न दिखलायी। एक मिनट तक तो पान फेरती रही, फिर अन्दर चली गयी और कोई मसाला लिये हुए निकली। मैं दिल में खुश हुआ कि आज बड़े विधिपूर्वक गिलौरियां बना रही है। मगर अब भी वह सड़क की ओर प्रतीक्षा की आंखों से ताक रही थी कि जैसे दुकान के सामने कोई ग्राहक ही नहीं और ग्राहक भी कैसा, जो उसका पड़ोसी है और दिन में बीसियों ही बार आता है! तब तो मैंने जरा झुंझलाकर कहा- मैं कितनी देर से खड़ा हूं, कुछ इसकी भी खबर है?

तम्बोलिन ने क्षमा-याचना के स्वर में कहा- हां बाबू जी, आपको देर तो बहुत हुई लेकिन एक मिनट और ठहर जाइए। बुरा न मानिएगा बाबू जी, आपके हाथकी बोहनी अच्छी नहीं है। कल आपकी बोहनी हुई थी, दिन में कुल छ: आने की बिक्री हुई। परसों भी आप ही की बोहनी थी, आठ आने के पैसे दुकान में आये थे। इसके पहले दो दिन पंडित जी की बोहनी हुई थी, दोपहर तक ढाई रुपये आ गये थे। कभी किसी का हाथ अच्छा नहीं होता बाबू जी!

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