कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28 प्रेमचन्द की कहानियाँ 28प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग
मुझे गोली-सी लगी। मुझे अपने भाग्यशाली होने का कोई दवा नहीं है, मुझसे ज्यादा अभागे दुनिया में नहीं होंगे। इस साम्राज्य का अगर में बादशाह नहीं, तो कोई ऊंचा मंसबदार जरूर हूं। लेकिन यह मैं कभी गवारा नहीं कर सकता कि नहूसत का दाग बर्दाश्त कर लूं। कोई मुझसे बोहनी न कराये, लोग सुबह को मेरा मुंह देखना अपशकुन समझें, यह तो घोर कलंक की बात है। मैंने पान तो ले लिया लेकिन दिल में पक्का इरादा कर लिया कि इस नहूसत के दाग को मिटाकर ही छोडूंगा।
अभी अपने कमरे में आकर बैठा ही था कि मेरे एक दोस्त आ गये। बाजार साग-भाजी लेने जा रहे थे। मैंने उनसे अपनी तम्बोलिन की खूब तारीफ की। वह महाशय जरा सौंदर्य-प्रेमी थे और मजाकिया भी। मेरी ओर शरारत-भरी नजरों से देखकर बोले- इस वक्त तो भाई, मेरे पास पैसे नहीं हैं और न अभी पानों की जरूरत ही है।
मैंने कहा- पैसे मुझसे ले लो।
‘हां, यह मंजूर है, मगर कभी तकाजा मत करना।‘
‘यह तो टेढ़ी खीर है।‘
‘तो क्या मुफ्त में किसी की आंख में चढ़ना चाहते हो?’
मजबूर होकर उन हजरत को एक ढोली पान के दाम दिये। इसी तरह जो मुझसे मिलने आया, उससे मैंने तम्बोलिन का बखान किया। दोस्तों ने मेरी खूब हंसी उड़ायी, मुझ पर खूब फबतियां कसीं, मुझे ‘छिपे रुस्तम’, ‘भगतजी’ और न जाने क्या-क्या नाम दिये गये लेकिन मैंने सारी आफतें हंसकर टालीं। यह दाग मिटाने की मुझे धुन सवार हो गयी। दूसरे दिन जब मैं तम्बोलिन की दुकान पर गया तो उसने फौरन पान बनाये और मुझे देती हुई बोली- बाबू जी, कल तो आपकी बोहनी बहुत अच्छी हुई, कोई साढे तीन रुपये आये। अब रोज बोहनी करा दिया करो।
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