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प्रेमचन्द की कहानियाँ 28

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9789
आईएसबीएन :9781613015261

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग


बनिया- मौलवी साहब, आप जाते कहाँ हैं? चलिए हमारा-आपका फैसला थाने में होगा। मैं एक न मानूँगा। कहलाने को मौलवी, दीनदार, ऐसे बनते हैं कि देवता ही हैं। पर घर में चीज रख कर दूसरों को बेईमान बनाते हैं। यह लम्बी दाढ़ी धोखा देने के लिए बढ़ायी है?

मगर मौलवी साहब न रुके। बनिये को छोड़ कर खलील के बाप के पास चले गये, जो इस वक्त शर्म से बचने का सहज बहाना था।

तब खलील ने अहीर से कहा- क्यों बे, तू भी थाने जा रहा है? चल मैं भी चलता हूँ। तेरे घर से यह सेर भर खली लेता आया हूँ।

अहीर ने मौलवी साहब की दुर्गति देखी तो चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं, बोला- भैया जवानी की कसम है, मुझे मौलवी साहब ने सिखा दिया था।

खलील- दूसरे के सिखाने से तुम किसी के घर में आग लगा दोगे? खुद तो बच्चा दूध में आधा पानी मिला-मिला कर बेचते हो, मगर आज तुमको इतनी मुटमरदी सवार हो गयी कि एक भले आदमी को तबाह करने पर आमादा हो गये। खली उठा कर घर में रख ली, उस पर बनिये से कहते हो कि कम तौला।

बनिया- भैया, मेरी लाख रुपये की इज्जत बिगड़ गयी। मैं थाने में रपट किये बिना न मानूँगा।

अहीर- साहू जी, अबकी माफ करो, नहीं तो कहीं का न रहूँगा।

तब खलील ने मुंशी जी से कहा- कहिए जनाब, आपकी कलई खोलूँ या चुपके से घर की राह लीजिएगा।

मुंशी- तुम बेचारे मेरी कलई क्या खोलोगे। मुझे भी अहीर समझ लिया है कि तुम्हारी भपकियों में आऊँगा?

खलील- (लड़के से) क्यों बेटा, तुम शक्कर ले कर सीधे घर चले गये थे?

लड़का- (मुंशी जी को सशंक नेत्रों से देख कर) बताऊँगा।

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