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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790
आईएसबीएन :9781613015278

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


सज्जनों! हमारी अधोगति की कथा सुनकर किसकी आँखों से अश्रुधारा न निकल पड़ेगी? हमें अपने प्राचीन गौरव को याद करके संदेह होने लगता है कि हम वही हैं या बदल गए। जिसने कल सिंह से पंगा लिया, वह आज चूहे को देखकर बिल खोज रहा है! इस  पतन की भी कोई सीमा है। दूर क्यों जाइए, महाराज चंद्रगुप्त के समय को ही लीजिए। यूनान के सुविज्ञ इतिहासकार लिखता है कि उस जमाने में यहाँ द्वार पर ताले न डाले जाते थे। चोरी कहीं सुनने में न आती थी, व्यभिचार का नाम-निशान न था, दस्तावेजों का आविष्कार ही न हुआ था, पुर्जों पर लाखों का लेन-देन हो जाता था, न्याय पद पर बैठे हुए कर्मचारी मक्खियाँ मारा करते थे। सज्जनों, उन दिनों कोई आदमी जवान न मरता था (तालियाँ)। हाँ, उन दिनों कोई आदमी जवान न मरता था, बाप के सामने बेटे का अवसान हो जाना एक अभूतपूर्व–एक असंभव घटना–थी। आज ऐसे कितने माता-पिता हैं, जिनके कलेजे पर जवान बेटों का दाग न हो? वह भारत नहीं रहा, भारत गारत हो गया!

यही चौबे जी की शैली थी। वह वर्तमान की अधोगति और दुर्दशा तथा भूत की समृद्धि और सुदशा का राग अलाप कर लोगों में जातीय स्वाभिमान को जाग्रत कर देते थे। इसी सिद्धि की बदौलत उनकी नेताओं में गणना होती थी। विशेषतः हिन्दू सभा के तो  कर्णधार समझे जाते थे। हिन्दू सभा के उपासकों में कोई ऐसा उत्साही, ऐसा दक्ष, ऐसा नीति-चतुर दूसरा न था। यों कहिए कि सभा के लिए उन्होंने अपना जीवन ही उत्सर्ग कर दिया था। धन तो उनके पास न था, कम-से-कम लोगों का विचार यही था, लेकिन साहस, धैर्य और बुद्धि-जैसे अमूल्य रत्न उनके पास अवश्य थे, और ये सभा को अर्पण थे।

‘शुद्धि’ के तो मानो वह प्राण ही थे। हिन्दू जाति का उत्थान और पतन, जीवन और मरण उनके विचार में इसी प्रश्न पर अवलंबित था। शुद्धि के सिवा अब हिंदू-जाति के पुनर्जीवन का और कोई उपाय न था। जाति की समस्त नैतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक बीमारियों की दवा इसी आंदोलन की सफलता में मर्यादित थी, और वह तन-मन से इसका उद्योग किया करते थे।

चंदे वसूल करने में चौबेजी बहुत सिद्धहस्त थे। ईश्वर ने उन्हें वह ‘गुर’ बता दिया था कि पत्थर से भी तेल निकाल सकते थे। कंजूसों की तो वह ऐसा उल्टे छुरे से मूढ़ते थे कि उन महाशयों को सदा के लिए शिक्षा मिल जाती थी। इस विषय में पंडितजी साम, दाम, दण्ड और भेद, चारों नीतियों से काम लेते थे, यहाँ तक कि राष्ट्रहित के लिए डाका और चोरी को भी क्षम्य समझते थे।

गरमी के दिन थे। लीलाधर जी किसी शीतल पार्वत्य-प्रदेश को जाने की तैयारियाँ कर रहे थे कि सैर कि सैर हो जाएगी, और बन पड़ा तो, कुछ चंदा भी वसूल कर लाएँगे। उनको जब भ्रमण की इच्छा होती, तो मित्रों के साथ एक डेपुटेशन के रूप में निकल खड़े होते। अगर एक हजार रुपए वसूल करके वह इसका आधा सैर-सपाटे में भी खर्च कर दें, तो किसी की क्या हानि? हिंदू-सभा को तो कुछ न कुछ मिल ही जाता था। वह उद्योग न करते, तो इतना भी तो न मिलता ! पंडितजी ने अबकी सपरिवार जाने का निश्चय किया था। जब से ‘शुद्धि' का आविर्भाव हुआ था, उनकी आर्थिक दशा, जो पहले बहुत शोचनीय रहती थी, बहुत कुछ सँभल गई थी।

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