कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
लेकिन जाति के उपासकों का ऐसा सौभाग्य कहाँ कि शांति-निवास का आनंद उठा सकें! उनका तो जन्म ही मारे-मारे फिरने के लिए होता है। खबर आयी कि मदरास-प्रांत तबलीगवालों ने तूफान मचा रखा है। हिंदुओं के गाँव के गाँव मुसलमान होते जाते हैं। मुल्लाओं ने बड़े जोश से तबलीग का काम शुरू किया है। अगर हिंदू-सभा ने इस प्रवाह को रोकने की आयोजना न की तो सारा प्रांत हिंदुओं से शून्य हो जायगा–किसी शिखाधारी की सूरत न नजर आएगी।
हिंदू-सभा में खलबली मच गई। तुरंत एक विशेष अधिवेशन हुआ और नेताओं के सामने यह समस्या उपस्थित की गई। बहुत सोच-विचार के बाद निश्चय हुआ कि चौबेजी पर इस कार्य का भार रखा जाए। उनसे प्रार्थना की जाए कि वह तुरंत मदरास चले जाएँ, धर्म-विमुख बंधुओं का उद्धार करें। कहने ही की देर थी। चौबेजी तो हिंदू-जाति की सेवा के लिए अपने को अर्पण कर ही चुके थे; पर्वत-यात्रा का विचार रोक दिया, और मदरास जाने को तैयार हो गए। हिंदू-सभा के मंत्री ने आँखों में आँसू भरकर उनसे विनय की कि महाराज, यह बीड़ा आप ही उठा सकते हैं। आप ही को परमात्मा ने इतनी सामर्थ्य दी है। आपके सिवा ऐसा कोई दूसरा मनुष्य भारतवर्ष में नहीं है जो इस घोर विपत्ति में काम आए। जाति की दीन-हीन दशा पर दया कीजिए।
चौबेजी इस प्रार्थना को अस्वीकार न कर सके। फौरन सेवकों की मंडली बनी, और पंडितजी के नेतृत्व में रवाना हुई। हिंदू-सभा ने उसे बड़ी धूम से विदाई का भोज दिया। एक उदार रईस ने चौबेजी को एक थैली भेंट की और रेल-स्टेशन पर हजारों आदमी उन्हें विदा करने आये।
यात्रा का वृत्तांत लिखने की जरूरत नहीं। हर एक बड़े स्टेशन पर सेठ का सम्मान-पूर्ण स्वागत हुआ। कई जगह थैलियाँ मिलीं। रतलाम की रियासत ने एक शामियाना भेंट किया। बड़ोदा ने एक मोटर दी कि सेवकों को पैदल चलने का कष्ट न उठाना पड़े, यहाँ तक कि मदरास पहुँचते-पहुँचते सेवा-दल के पास एक माकूल रकम के अतिरिक्त जरूरत की कितनी ही चीजें जमा हो गईं। वहाँ आबादी से दूर, एक खुले मैदान में हिंदू-सभा का पड़ाव पड़ा। शामियाने पर राष्ट्रीय झंडा फहराने लगा। सेवकों ने अपनी-अपनी वर्दियाँ निकालीं, स्थानीय धन-कुबेरों ने दावत के सामान भेजे, रावटियाँ पड़ गईं। चारों ओर ऐसी चहल-पहल हो गई, मानो किसी राजा का कैम्प है।
रात के आठ बजे थे। अछूतों की एक बस्ती के समीप, सेवक-दल का कैम्प गैस के प्रकाश से जगमगा रहा था। कई हजार आदमियों का जमाव था, जिनमें अधिकांश अछूत ही थे। उनके लिए अलग टाट बिछा दिये गये थे। ऊँचे वर्ग के हिंदू कालीनों पर बैठे हुए थे। पंडित लीलाधर का धुआँधार व्याख्यान हो रहा था- तुम उन्हीं ऋषिओं की संतान हो, जो आकाश के नीचे एक नई सृष्टि की रचना कर सकते थे, जिनके न्याय, बुद्धि और विचार-शक्ति के सामने आज सारा संसार सिर झुका रहा है...
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