कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
'लेकिन दिल में वह मूर्ति दौड़ रही है।'
'तो आओ बैठें। जब वह उठकर जाने लगे, तो उसके पीछे चलें। मै कहता हूँ वेश्या है।'
'और मैं कहता हूँ कुल-वधू है।'
'तो दस-दस की बाजी रही।'
दो वृद्ध पुरुष धीरे-धीरे ज़मीन की ओर ताकते आ रहे हैं। मानो खोई जवानी ढूँढ रहे हों। एक की कमर झुकी, बाल काले, शरीर स्थूल, दूसरे के बाल पके हुए, पर कमर सीधी, इकहरा शरीर। दोनों के दाँत टूटे, पर नक़ली लगाए, दोनों की आँखों पर ऐनक। मोटे महाशय वक़ील हैं, छरहरे महोदय डॉक्टर।
वक़ील- देखा, यह बीसवीं सदी का करामात।
डॉक्टर- जी हाँ देखा, हिन्दुस्तान दुनिया से अलग तो नहीं हैं?
'लेकिन आप इसे शिष्टता तो नहीं कह सकते?'
'शिष्टता की दुहाई देने का अब समय नहीं।'
'है किसी भले घर की लड़की।'
'वेश्या है साहब, आप इतना भी नहीं समझते।'
'वेश्या इतनी फूहड़ नहीं होती।'
'और भले घर की लड़की फूहड़ होती हैं।'
'नयी आज़ादी है, नया नशा है।'
'हम लोगों की तो बुरी-भली कट गयी। जिनके सिर आयेगी, वह झेलेंगे।'
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