कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
'निरे अहमक हो! बगैर परिचय के आप किसी को जगा कैसे सकते हैं?'
'अजी, चलकर परिचय कर लेंगे। उलटे और एहसान जताएँगे।'
'और जो कहीं झिझक दे?'
'झिझकने की कोई बात भी हो। उससे सौजन्य और सहृदयता में डूबी हुई बातें करेंगे। कोई युवती ऐसी, गतयौवनाएँ तक तो रस-भरी बातें सुनकर फूल उठती हैं। यह तो नवयौवना है। मैने रूप और यौवन का ऐसा सुन्दर संयोग नहीं देखा था।'
'मेरे हृदय पर तो यह रूप जीवन-पर्यंत के लिए अंकित हो गया। शायद कभी न भूल सकूँ।'
'मैं तो फिर भी यही कहता हूँ कि कोई वेश्या है।'
'रूप की देवी वेश्या भी हो, उपास्य है।'
'यहीं खड़े-खड़े कवियों की-सी बातें करोगे, जरा वहाँ तक चलते क्यों नहीं? केवल खड़े रहना, पाश तो मैं डालूँगा।'
'कोई कुल-वधू है।'
'कुल-वधू पार्क में आकर सोये, तो इसके सिवा कोई अर्थ नहीं कि वह आकर्षित करना चाहती है और यह वेश्या मनोवृत्ति है।'
'आजकल की युवतियाँ भी तो फारवर्ड होने लगी हैं।'
'फारवर्ड युवतियाँ युवकों से आँखें नहीं चुराती।'
'हाँ, लेकिन है कुल-वधु। कुल-वधू से किसी तरह की बातचीत करना मैं बेहूदगी समझता हूँ।'
'तो चलो, फिर दौड़ लगाएँ।'
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