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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792
आईएसबीएन :9781613015292

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


''अब क्यों इतनी कृपा करने लगे?''

''इसलिए कि मुझ-जैसी स्थिति के आदमी को जिस तरह रहना चाहिए, वह तुमने सिखा दिया। मेरी आमदनी मैं आधा मेरी स्त्री का है, पर अब तक मैं उसका हिस्सा भी हड़प कर जाता था। अब मैं इस योग्य हो रहा हूँ कि उसका हिस्सा उसे दे दूँ या स्त्री को अपने साथ रखूँ। तुमने मुझे बहुत अच्छा पाठ दे टिया।''

''अगर तुम्हारी आमदनी कुछ बढ़ जाए, तो फिर उसी तरह रहने लगोगे?''

'नहीं, कदापि नहीं। अपनी स्त्री को बुला लूँग़ा।''

''अच्छा तो खुश हो जाओ, तुम्हारी तरक्की हो गई है।''

मैने अविश्वास के भाव से कहा- ''मेरी तरक्की अभी क्या होगी। अभी मुझसे पहले के लोग पड़े नाक रगड़ रहे हैं।''

''कहता हूँ मान जाव। मुझसे तुम्हारे बड़े बाबू कहते थे।''

मुझे अब भी विश्वास न आया, पर मारे कुतूहल के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उधर दानू बाबू अपने घर गए, इधर मैं बड़े बाबू के घर पहुँचा। बड़े बाबू बैठे अपनी बकरी दुह रहे थे। मुझे देखा, तो झेंपते हुए बोले- ''क्या करें, भई आज ग्वाला नहीं आया, इसलिए यह बला गले पड़ी। चलो बैठो।

मैं कमरे में जा बैठा। बाबूजी भी कोई आध घंटे के बाद हाथ में गुड़गुड़ी लिए निकले और इधर-उधर की बातें करते रहे। आखिर मुझसे न रहा गया, बोला- ''मैंने सुना है मेरी कुछ तरक्की हो गई है।''

वड़े बाबू ने प्रसन्न मुख होकर कहा- ''हाँ, भाई हुई तो है। तुमसे दानू बाबू ने कहा होगा।''

''सुना है, अभी कहा है। मगर मेरा नंबर तो अभी नहीं आया, तरक्की कैसे हुई।''   

''यह न पूछो। अफ़सरों की निगाह चाहिए, नंबर-सबर कौन देखता है।''

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