कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31 प्रेमचन्द की कहानियाँ 31प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग
''लेकिन ताखिर मुझे किसकी जगह मिली। अभी कोई तरक्की का मौक़ा भी तो नहीं।''
''कह दिया, भई, अफ़सर लोग सब कुछ कर सकते हैं। साहब एक दूसरी मद से तुम्हें 15 रुपए महीना देना चाहते हैं। दानू बाबू ने शायद साहब से कहा सुना होगा।''
''किसी दूसरे का हक़ मारकर तो मुझे ये रुपए नहीं दिए जा रहे हैं?''
''नहीं, यह बात नहीं। मैं खुद इसे न मंजूर करता।''
महीना गुजरा, मुझे 45 रुपए मिले। मगर रजिस्टर में मेरे नाम के सामने वही 3० रुपए लिखे थे। बड़े बाबू ने अकेले बुलाकर मुझे रुपए दिए और ताक़ीद कर दी कि किसी से कहना मत, नहीं तो दफ्तर में बावेला मच जाएगा। साहब का हुक्म है कि यह बात गुप्त रखी जाए।
मुझे संतोष हो गया कि किसी सहकारी का गला घौंटकर मुझे रुपए नहीं दिए गए। खुश-खुश रुपए लिए हुए सीधा दानू वाबू के पास पहुँचा। वह मेरी बाछें खिली देखकर बोले- ''मार लाए तरक्की क्यों?''
''हाँ यार, रुपए तो 15 मिले, लेकिन तरक्की नहीं हुई, किसी और मद से दिए गए हैं।
''तुम्हें रुपए से मतलब है, चाहे किसी मद से मिलें, तो अब बीवी को लेने जाओगे?''
''नहीं, अभी नहीं।''
''तुमने तो कहा था, आमदनी बढ़ जाएगी, तो बीवी को लाऊँगा, अब क्या हो गया?
''मैं सोचता हूँ पहले आपके रुपए पटा दूँ। अब से 3० रुपए महीने देता जाऊँगा, साल-भर में पूरे रुपए पट जाएँगे। तब मुक्त हो जाऊंगा।''
दानू बाबू की आँखें सजल हो गई। मुझे आज अनुभव हुआ कि उनकी इस कठोर आकृति के नीचे कितना कोमल हृदय छिपा हुआ था। बोले- ''नहीं, अब की मुझे कुछ मत दो। रेल का खर्च पड़ेगा, वह कहाँ से दोगे। जाकर अपनी स्त्री को ले आओ।''
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