कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 31 प्रेमचन्द की कहानियाँ 31प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग
मैंने दुबिधा में पड़कर कहा- ''यार, अभी न मजबूर करो। शायद क़िस्त न अदा कर सकूँ तो?''
दानू बाबू ने मेरा हाथ पकड़कर कहा- ''तो कोई हरज नहीं। सच्ची बात यह है कि मैं अपनी घड़ी के दाम पा चुका। मैंने तो उसके 25 ही दिए थे। उस पर 3 साल काम ले चुका था। मुझे तुमसे कुछ न लेना चाहिए या। अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हूँ।
मेरी आँखें भी भर आईं। जी में तो आया घड़ी का सारा रहस्य कह सुनाऊँ, लेकिन जप्त कर गया। गद्गद कंठ से बोला- ''नहीं दानू बाबू मुझे रुपए अदा कर लेने दो। आखिर तुम उस घड़ी को 4, 5 सौ मैं बेच लेते या नहीं। मेरे कारण तुम्हें इतना नुकसान क्यों हो।''
''भई, अब घड़ी की चर्चा न करो। यह बतलाओ कब जाओगे।''
''अरे, तो पहले रहने का तो ठीक कर लूँ।''
''तुम जाओ, मैं मकान का प्रबंध कर रखूँगा।''
''मगर मैं 5 रुपए से ज्यादा किराया न दे सकूँगा। शहर से जरा हटकर मकान सस्ता मिल जाएगा।''
''अच्छी बात है, मैं सब ठीक कर रखूँगा। किस गाड़ी से लौटोगे?''
''यह अभी क्या मालूम। विदाई का मामला है, साइत बने या न बने या लोग एकाध दिन रोक ही लें। तुम इस झंझट में क्यों पड़ोगे। मैं दो-चार दिन में मकान ठीक करके चला जाऊँगा।''
''जी नहीं, आप आज जाइए और कल आइए।''
''तो उतरूँगा कहाँ?''
''मैं मकान ठीक कर लूँगा। मेरा आदमी तुम्हें स्टेशन पर मिलेगा।''
मैंने बहुत हीले-हवाले किए, पर उस भले आदमी ने एक न सुनी। उसी दिन मुझे ससुराल जाना पड़ा।
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