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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792
आईएसबीएन :9781613015292

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


नानकचन्द के दिल पर से चिन्ता का बोझ उतर गया। बनारस से माहवार वजीफा मिलने लगा। इधर ललिता की कोशिश ने भी कुछ दिल को खींचा और गो शराब की लत न टूटी और हफ्ते में दो दिन जरूर थियेटर देखने जाता, तो भी तबियत में स्थिरता और कुछ संयम आ चला था। इस तरह कलकत्ते में उसने तीन साल काटे। इसी बीच एक प्यारी लड़की के बाप बनने का सौभाग्य हुआ, जिसका नाम उसने कमला रक्खा।

तीसरा साल गुजरा था कि नानकचन्द के उस शान्तिमय जीवन में हलचल पैदा हुई। लाला ज्ञानचन्द का पचासवॉँ साल था जो हिन्दोस्तानी रईसों की प्राकृतिक आयु है। उनका स्वर्गवास हो गया और ज्योंही यह खबर नानकचन्द को मिली वह ललिता के पास जाकर चीखें मार-मारकर रोने लगा। जिन्दगी के नये-नये मसले अब उसके सामने आए। इस तीन साल की सँभली हुई जिन्दगी ने उसके दिल शोहदेपन और नशेबाजी के खयाल बहुत कुछ दूर कर दिये थे। उसे अब यह फिक्र सवार हुई कि चलकर बनारस में अपनी जायदाद का कुछ इन्तजाम करना चाहिए, वर्ना सारा कारोबार धूल में मिल जाएगा। लेकिन ललिता का क्या करूँ, अगर इसे वहाँ लिये चलता हूँ तो तीन साल की पुरानी घटनाएं ताजी हो जायेंगी और फिर एक हलचल पैदा होगी जो मुझे हुक्काम और हमजोलियों में जलील कर देगी। इसके अलावा उसे अब कानूनी औलाद की जरूरत भी नजर आने लगी। यह हो सकता था कि वह ललिता को अपनी ब्याहता स्त्री मशहूर कर देता लेकिन इस आम खयाल को दूर करना असम्भव था कि उसने उसे भगाया है।

ललिता से नानकचन्द को अब वह मुहब्बत न थी जिसमें दर्द होता है और बेचैनी होती है। वह अब एक साधारण पति था जो गले में पड़े हुए ढोल को पीटना ही अपना धर्म समझता है, जिसे बीबी की मुहब्बत उसी वक्त याद आती है, जब वह बीमार होती है। और इसमें अचरज की कोई बात नहीं है अगर जिंदगी की नयी नयी उमंगों ने उसे उकसाना शुरू किया। मंसूबे पैदा होने लगे, जिनका दौलत और बड़े लोगों के मेल जोल से सबंध है मानव भावनाओं की यही साधारण दशा है। नानकचन्द अब मजबूत इरादे के साथ सोचने लगा कि यहां से क्योंकर भागूँ। अगर जलालत लेकर जाता हूं तो दो चार दिन में सारा पर्दाफाश हो जाएगा। अगर हीला किये जाता हूँ तो आज के तीसरे दिन ललिता बनारस में मेरे सर पर सवार होगी। कोई ऐसी तरकीब निकालूं कि इन सम्भावनाओं से मुक्ति मिले। सोचते-सोचते उसे आखिर एक तदबीर सूझी। वह एक दिन शाम को दरिया की सैर का बहाना करके चला और रात को घर पर न अया। दूसरे दिन सुबह को एक चौकीदार ललिता के पास आया और उसे थाने में ले गया। ललिता हैरान थी कि क्या माजरा है। दिल में तरह-तरह की दुश्चिन्तायें पैदा हो रही थी वहाँ जाकर जो कैफियत देखी तो दुनिया आंखों में अंधेरी हो गई। नानकचन्द के कपड़े खून में तर-ब-तर पड़े थे उसकी वही सुनहरी घड़ी, वही खूबसूरत छतरी, वही रेशमी साफा सब वहाँ मौजूद था। जेब में उसके नाम के छपे हुए कार्ड थे। कोई संदेह न रहा कि नानकचन्द को किसी ने कत्ल कर डाला। दो तीन हफ्ते तक थाने में तककीकातें होती रहीं और, आखिरकार खूनी का पता चल गया पुलिस के अफसर को बड़े-बड़े इनाम मिले। इसको जासूसी का एक बड़ा आश्चर्य समझा गया। खूनी ने प्रेम की प्रतिद्वन्द्विता के जोश में यह काम किया। मगर इधर तो गरीब बेगुनाह खूनी सूली पर चढ़ा हुआ था। और वहाँ बनारस में नानक चन्द की शादी रचायी जा रही थी।

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